श्लोक १७-०८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
तक्षकस्य विषं दन्ते मक्षिकायास्तु मस्तके ।
वृश्चिकस्य विषं पुच्छे सर्वाङ्गे दुर्जने विषम् ॥ १७-०८॥
तक्षक के दाँत में विष रहता है, मक्षिका के सिर में विष होता है। वृश्चिक के डंक में विष है, और दुर्जन के सम्पूर्ण शरीर में विष समाहित है।

विष का रूप भिन्न-भिन्न स्थानों में रहता है और उसका प्रभाव भी विभिन्न प्रकार से प्रकट होता है। यहाँ तक्षक, मक्षिका, वृश्चिक तथा दुर्जन के विष की तुलना की गई है। तक्षक के दन्त में विष रहता है, अर्थात् वह अपने काटने से हानिकारक प्रभाव डालता है। मक्षिका के सिर में विष होने का सूचक यह है कि वह सिर में स्थित होने के कारण अधिक प्रभावी एवं जहरीला होता है। वृश्चिक का विष पुच्छ में होता है, जिसका उपयोग वह अपने शिकार या शत्रु को मारने में करता है।

दुर्जन के शरीर को समग्रतः विष के समान बताया गया है, जिसका आशय है कि वह अपने संपूर्ण आचरण, वाणी, विचार तथा कर्म से हानिकारक एवं विषैला होता है। इस प्रकार यह श्लोक विष के विभिन्न प्रकारों और उनके स्थानों के माध्यम से विभिन्न प्रकार के नकारात्मक प्रभावों को चित्रित करता है। तक्षक, मक्षिका, वृश्चिक जैसे प्राणी विष का प्रचलित रूप हैं, जिनके विषैले स्थान भिन्न हैं, परन्तु दुर्जन का विष सर्वत्र व्याप्त होता है।

यहां विष का प्रयोग केवल भौतिक अर्थ में नहीं, अपितु दुष्टता, हानिकारकता और निंदनीय स्वभाव के लिए भी किया गया है। दुष्ट व्यक्ति के स्वभाव की तुलना वृश्चिक के विष से की गई है, जो अपने डंक के माध्यम से विष छिड़कता है।

नैतिक और सामाजिक दृष्टि से, यह विचारनीय है कि दूषित व्यवहार और निंदनीय स्वभाव किसी भी समुदाय या समाज के लिए विष के समान होते हैं, जो सम्पूर्ण समाज को प्रभावित करते हैं। इस दृष्टि से विष का प्रभाव केवल शारीरिक हानि नहीं, अपितु मानसिक, सामाजिक और नैतिक स्तर पर भी व्याप्त होता है।

ऐसे दुष्ट व्यक्तियों के प्रति सजग रहना आवश्यक है, क्योंकि उनकी वृत्ति सम्पूर्ण समाज के लिए हानिकारक सिद्ध हो सकती है। श्लोक में विष के विभिन्न प्रकारों के स्थान का सूक्ष्म विवेचन नैतिक चेतना उत्पन्न करता है कि व्यक्ति के आचरण का विष उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व में व्याप्त होता है, और इसे पहचानकर उचित सावधानी बरतनी चाहिए।