श्लोक १७-१०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
न दानैः शुध्यते नारी नोपवासशतैरपि ।
न तीर्थसेवया तद्वद्भर्तुः पदोदकैर्यथा ॥ १७-१०
नारी दान से शुद्ध नहीं होती, न सौवीर्य के कारण उपवास से, न तीर्थ सेवा से, जैसे पति के चरण जल से नहीं होती।

यह श्लोक स्त्री की शुद्धता को सामाजिक और धार्मिक क्रियाओं से परिभाषित करने वाले दृष्टिकोणों पर प्रश्नचिह्न लगाता है। दान करना, उपवास रखना, या तीर्थयात्रा कर चरण जल से स्नान करना जैसे कर्मकांडिक उपाय, जो प्रायः पवित्रता की निशानी माने जाते हैं, स्त्री की वास्तविक शुद्धता के लिए पर्याप्त नहीं हैं। यहाँ शुद्धता का संदर्भ केवल बाह्य कर्मकांडों तक सीमित नहीं है, अपितु आंतरिक गुणों, चरित्र, और स्वभाव से है।

संस्कृत साहित्य में नारी को पारंपरिक रूप से पवित्रता और शुद्धता का प्रतीक माना जाता है, किन्तु इस श्लोक के माध्यम से यह विचार प्रस्तुत होता है कि बाह्य आचरण और धार्मिक अनुष्ठान मात्र से नारी की शुद्धता स्थापित नहीं होती। पति के चरण जल से भी न शुद्ध होती, इसका तात्पर्य है कि पति के प्रति समर्पण, निष्ठा और नैतिकता जैसे गुणों की आवश्यकता होती है जो केवल कर्मकांड या अनुष्ठान द्वारा प्राप्त नहीं हो सकते।

यह दृष्टिकोण सामाजिक-नैतिकता की गहराई को इंगित करता है, जहां व्यक्तिगत आचार, नैतिकता, और चरित्र को ही शुद्धता की मापक माना गया है। धार्मिक अनुष्ठान, उपवास, दान इत्यादि तो केवल बाहरी संकेत हैं, जो असत्य शुद्धता के भ्रम में डाल सकते हैं। वास्तविक शुद्धता आंतरिक गुणों से प्रकट होती है।

इस श्लोक का दार्शनिक पक्ष यह है कि धार्मिक कृत्यों का महत्व उनके सार्थकता और आचरण के अनुरूप होना चाहिए। यदि बाहरी कृत्यों के बावजूद आचरण और मनोवृत्ति दूषित हो, तो वे कृत्य शुद्धता प्रदान नहीं कर सकते। नारी के संदर्भ में, पति के प्रति निष्ठा और चरित्र की शुद्धता को ही वास्तव में शुद्धता माना गया है, जो न दान से, न उपवास से, न तीर्थ से, न चरण जल से प्राप्त होती है।

यह विचार पौराणिक और नीतिगत ग्रंथों में भी कई बार प्रतिपादित हुआ है, कि शुद्धता कर्मों से अधिक मन और चरित्र की अवस्था है। पवित्रता की धारणा में केवल बाह्य क्रियाएं पर्याप्त नहीं, बल्कि आंतरिक गुण प्रधान हैं। अतः नारी की शुद्धता का मापक उसकी आचार विचार और नैतिकता है, जो सतत अभ्यास, ज्ञान, और चरित्र के माध्यम से स्थापित होती है।

यह दृष्टिकोण सामाजिक नीतियों, धार्मिक आचरणों, और सांस्कृतिक मान्यताओं में तर्कपूर्ण परिवर्तन का आवाहन करता है, जहां बाह्य अनुष्ठानात्मकता से ऊपर उठकर वास्तविक मनोवैज्ञानिक और नैतिक विकास को महत्व दिया जाए।