श्वानमूत्रसमं तोयं पीत्वा चान्द्रायणं चरेत् ॥ ॥१७॥
यह श्लोक शरीरशुद्धि, व्यवहारनीति, तथा मानसिक अनुशासन के सम्बन्ध में अत्यन्त कठोर परन्तु स्पष्ट चेतावनी प्रस्तुत करता है। इसमें उल्लिखित वस्तुएँ — जैसे पादशेष अन्न (अर्थात् ऐसा भोजन जिस पर किसी के पाँव पड़े हों या जो किसी के पाँव के समीप से रहित न हो), पीतशेष पेय (किसी और के द्वारा पहले पिया गया), संध्याशेष (संध्याकालीन कर्तव्यों, विशेषतः संध्यावन्दन आदि, का त्याग), तथा अशुद्ध जल (जो कुत्ते के मूत्र के तुल्य कहा गया है) — ये सब प्रतीक हैं उन आचरणों के जो केवल बाह्य अपवित्रता ही नहीं, बल्कि आन्तरिक दोष और सामाजिक-वैयक्तिक पतन का भी सूचक हैं।
यह श्लोक अस्वच्छता के विरोध में केवल शारीरिक स्तर पर नहीं, बल्कि एक सांस्कृतिक चेतना के स्तर पर चेतावनी देता है। जैसे भोजन का पवित्रता से सम्बन्ध केवल उसकी पोषण-शक्ति तक सीमित नहीं, बल्कि वह ग्रहणकर्ता की मनःशुद्धि एवं सामाजिक दायित्वबोध से भी सम्बद्ध है। पीतशेष या जूठा जल केवल स्वास्थ्य की दृष्टि से ही निन्दनीय नहीं है, यह आत्मविज्ञान में लीन व्यक्ति के लिए अनादर और उपेक्षा का चिन्ह भी बनता है। संध्याकालीन कर्तव्यों की उपेक्षा आत्मिक अनुशासन के ह्रास को इंगित करती है, जो आगे चलकर विवेक, श्रद्धा और आत्मनियंत्रण के अभाव की ओर ले जाता है।
कुत्ते के मूत्र से जल की तुलना, प्रतीकात्मक है — यह सामाजिक चेतना में ऐसी स्थितियों के लिए प्रयुक्त होती है जो अत्यन्त अपवित्र और त्याज्य मानी जाती हैं। अतः ऐसा जल पीना न केवल शरीर को विषाक्त करता है, वरन् चेतना को भी कलुषित करता है।
श्लोक का अन्तिम भाग — “चान्द्रायणं चरेत्” — एक तपस्या की ओर इंगित करता है। चान्द्रायण व्रत वैदिक परम्परा में अत्यन्त कठिन प्रायश्चित्तव्रत माना गया है, जो चन्द्रमा के कलानुसार भोजन की मात्रा घटाकर तपस्वी आत्मशुद्धि करता है। इसका उल्लेख इस सन्दर्भ में यह स्पष्ट करता है कि उपर्युक्त कृत्य केवल सामाजिक रूप से निन्दनीय नहीं, आत्मिक रूप से दोषपूर्ण भी हैं, जिनका प्रायश्चित्त अनिवार्य है।
विचारणीय है कि यह केवल धार्मिक रूढ़ियों का समर्थन नहीं, अपितु एक गहरी नैतिक दृष्टि का प्राकट्य है। यह व्यक्ति के प्रतिदिन के व्यवहारों को केवल सामाजिक स्वीकृति से नहीं, अपितु आन्तरिक पवित्रता और जागरूकता से मापता है। क्या हम अपने आचरणों में इतनी शुद्धता, सावधानी और आत्मसमीक्षा रखते हैं कि प्रत्येक कार्य को एक तपस्वी दृष्टि से देख सकें? क्या आधुनिक उपभोगवादी संस्कृति में ऐसे मानक उपहास्य नहीं बन चुके हैं? यदि हाँ, तो किस हद तक वह आत्मिक पतन की ओर संकेत करता है?
यह दृष्टिकोण जीवन को एक तपस्या की भाँति देखने का निमन्त्रण है, जिसमें आचरण, विचार और शरीर — सभी की पवित्रता एकमेक होकर पूर्णता की ओर अग्रसर होती है।