स्नानेन शुद्धिर्न तु चन्दनेन ।
मानेन तृप्तिर्न तु भोजनेन
ज्ञानेन मुक्तिर्न तु मुण्डनेन ॥ ॥१२॥
स्नान से शुद्धि होती है, न कि चन्दन से।
सम्मान से तृप्ति होती है, न कि भोजन से।
ज्ञान से मुक्ति होती है, न कि मुण्डन से।
वस्तु का मूल्य उसकी आभा से नहीं, उसके उपयोग से आँका जाता है। हाथ पर कंगन चमक सकता है, पर उसकी चमक से किसी की भूख नहीं मिटती; वही हाथ जब दान करता है, तो वह न केवल अपने लिए, अपितु समाज के लिए भी अर्थवान् हो उठता है। प्रतीकात्मक सज्जा से बढ़कर क्रियात्मक कर्तव्य अधिक मूल्यवान् होता है। यह कथन बाह्य आडम्बर के विरुद्ध गहन आन्तरिक मूल्य की घोषणा है।
यह केवल सामाजिक व्यवहार का प्रतिपादन नहीं करता, अपितु आध्यात्मिक स्तर पर भी झकझोरता है। स्नान और चन्दन — एक शुद्ध करता है, दूसरा मात्र सौन्दर्यवर्द्धक है। भौतिक शरीर को स्नान से शुद्ध किया जा सकता है, परन्तु चन्दन केवल आच्छादन करता है। इसी भाँति, भोजन केवल उदर पूर्ति करता है, परन्तु आत्मसम्मान या स्वाभिमान की तृप्ति भीतर से आती है — वह मान से आती है, जो सामाजिक प्रतिष्ठा, आदर अथवा आत्मस्वीकृति के द्वारा मिलती है।
सर्वाधिक गूढ़ पंक्ति है — ‘ज्ञान से मुक्ति, न कि मुण्डन से’। यह प्रहार है उस प्रवृत्ति पर जो मुक्ति, आत्मज्ञान या मोक्ष को केवल बाह्य रूपविन्यास, संन्यास या क्रियाकलापों के द्वारा प्राप्त मानती है। मुण्डन — शिरोमुण्डन — संन्यास या धार्मिक दीक्षा का प्रतीक हो सकता है, परन्तु यदि उसके पीछे तत्त्वबोध नहीं है, तो वह मात्र रूपविन्यास मात्र रह जाता है। ज्ञान, आत्मविमर्श और अन्तर्बोध से उत्पन्न होनेवाली बोधगम्यता ही बन्धनों को काट सकती है।
यहाँ चार द्वन्द्व प्रस्तुत हैं — दान-कंगन, स्नान-चन्दन, मान-भोजन, ज्ञान-मुण्डन। प्रत्येक द्वन्द्व में एक ‘आन्तरिक तत्त्व’ तथा एक ‘बाह्य प्रतीक’ को रखा गया है, और सूक्ष्म रूप से यह इंगित किया गया है कि आन्तरिक तत्त्व ही फलदायक है, प्रतीक मात्र नहीं। यह दृष्टिकोण वस्तुवादी भक्ति, परम्पराओं के अनुकरण, तथा आत्मविकास के खोखले आडम्बरों की आलोचना है।
यदि समाज केवल प्रतीकों से ही संचालित हो, तो उसमें मूल्यविहीनता, अधोगति और छद्म नैतिकता का प्रादुर्भाव अनिवार्य है। कंगन पहनकर कोई उदार नहीं बनता; भोज्य व्यंजन खिलाकर कोई सम्मानित नहीं हो जाता; मुण्डन करवा लेने से कोई मुक्त नहीं होता — जब तक भीतर से उसकी मनोभूमि, उसके संस्कार और उसकी दृष्टि परिवर्तित न हो।
एक गम्भीर दार्शनिक प्रश्न यह है: क्या संस्कृति का संरक्षण केवल अनुष्ठानों से सम्भव है, यदि उनके पीछे अर्थ का बोध न हो? यदि अनुष्ठान केवल परंपरागत चलन रह जाएँ, और मूलभूत तत्त्व — जैसे कि करुणा, विवेक, आत्मशुद्धि — पीछे छूट जाएँ, तो संस्कृति का स्वरूप क्या शेष रह जाएगा?
इस प्रकार यह विचार उस स्वावलम्बी, अर्थगर्भित और क्रियाशील जीवनदृष्टि की माँग करता है जिसमें प्रत्येक आचरण का मूल भीतर हो, न कि केवल सामाजिक दृश्य का अनुकरण। सज्जा, परिधान, अनुष्ठान — सब तब तक मूल्यहीन हैं जब तक वे अन्तर्मन की सच्चाई और उद्देश्य से अनुप्राणित न हों।