श्लोक १७-०६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अशक्तस्तु भवेत्साधुर्ब्रह्मचारी वा निर्धनः ।
व्याधितो देवभक्तश्च वृद्धा नारी पतिव्रता ॥ १७-०६॥
जो साधु है या ब्रह्मचारी है, यदि वह अशक्त हो; निर्धन हो; रोगग्रस्त हो; देवभक्त हो; वृद्ध हो; और स्त्री पतिव्रता हो, तो वह अशक्त ही माना जाता है।

इस श्लोक में अशक्तता के विभिन्न रूपों का निरूपण किया गया है जो व्यक्ति के सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, आध्यात्मिक और पारिवारिक संदर्भों में उसकी क्षमता की कमी को दर्शाते हैं। 'साधु' और 'ब्रह्मचारी' जैसे उच्च आध्यात्मिक पदों पर होने के बावजूद यदि कोई व्यक्ति शारीरिक या मानसिक रूप से दुर्बल है, तो उसे अशक्त माना जाता है। निर्धनता आर्थिक अशक्तता का सूचक है जो जीवन के आवश्यक संसाधनों की कमी से संबंध रखती है। 'व्याधित' अर्थात् रोगग्रस्तता, स्वास्थ्य की कमी के कारण सामाजिक एवं व्यक्तिगत कार्यों में अक्षमता दर्शाती है। 'देवभक्त' भी जब अशक्त होता है, तो यहां यह संभवतः यह इंगित करता है कि भक्ति के भाव में भी सामर्थ्य की कमी हो सकती है, जैसे मनोबल या श्रद्धा में दुर्बलता। वृद्धावस्था में शारीरिक एवं मानसिक सामर्थ्य का क्षय सामान्य है, इसलिए वृद्धा को भी अशक्त माना गया है। 'नारी पतिव्रता' का उल्लेख भी सामाजिक दायित्वों में अशक्तता के संदर्भ में है। इस प्रकार, अशक्तता का संपूर्ण चित्रण सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और शारीरिक आयामों से किया गया है, जो किसी भी व्यक्ति के सम्पूर्ण सामर्थ्य की कमी को सूचित करता है। यह दृष्टिकोण जीवन के विभिन्न पक्षों को ध्यान में रखते हुए पूर्ण व्यावहारिकता के साथ मनुष्य के सामर्थ्य और अक्षमता की पहचान करता है।

यह विचार इस बात को उद्घाटित करता है कि केवल आध्यात्मिक पद या सामाजिक प्रतिष्ठा से व्यक्ति की सम्पूर्ण शक्ति का आकलन नहीं किया जा सकता, बल्कि उसकी समग्र स्थिति, स्वास्थ्य, आर्थिक स्थिति और पारिवारिक भूमिका का भी मूल्यांकन आवश्यक है। अशक्तता का यह बहुआयामी दृष्टिकोण नीति विज्ञान में मनुष्य के व्यवहार, दायित्व और कर्तव्यों के विवेचन के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है।