शङ्खो भिक्षाटनं कुर्यान्न दत्तमुपतिष्ठते ॥ १७-०५॥
इस श्लोक में सामाजिक एवं नैतिक व्यवहार के उच्च आदर्शों का निरूपण है। पिता का रत्नों का निर्माता होना धन, समृद्धि एवं मूल्यवान वस्तुओं की प्राप्ति का सूचक है, और लक्ष्मी की बहन होने से यह स्पष्ट होता है कि उस व्यक्ति के पास सुख-सम्पदा का स्थायी स्रोत है। फिर भी, ऐसा व्यक्ति भिक्षाटन अर्थात् बिना परिश्रम या योग्यता के सहायता माँगने का मार्ग नहीं अपनाता। शंख, यहाँ एक प्रतीकात्मक उपकरण के रूप में, भिक्षाटन के लिए आवाज़ निकालने का प्रतिनिधित्व करता है, जो आर्थिक या सामाजिक प्रतिष्ठा के अभाव में किया जाता है।
अर्थात्, समृद्धि और सम्मान प्राप्त करने के पश्चात भी, वह व्यक्ति निर्भरता या असम्मानजनक व्यवहार से बचता है। इसका दार्शनिक पक्ष यह है कि योग्य व्यक्ति को आत्मसम्मान बनाए रखना चाहिए और परिश्रम अथवा योग्यता के बिना सहायता माँगने से बचना चाहिए। यह नीति व्यक्तिगत स्वाभिमान एवं सामाजिक प्रतिष्ठा के संरक्षण की ओर संकेत करती है।
न केवल आर्थिक स्थिति, अपितु नैतिक मूल्य भी जीवन की स्थिरता में सहायक होते हैं। इस प्रकार, यह श्लोक जीवन में स्वावलम्बन, स्वाभिमान, और योग्य परिश्रम के माध्यम से सम्मान अर्जित करने की महत्ता दर्शाता है।