सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम्।
सौजन्यं यदि किं गुणैः सुमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ॥१७-०४॥
यह श्लोक मानवीय गुणों और उनकी परिणतियों पर गहरा चिंतन प्रस्तुत करता है। गुण मात्र होने से वस्तु की सार्थकता या उसका मूल्य निर्धारित नहीं होता, वरन् उसके साथ जुड़े पर्यायवाची या प्रभावों की जाँच आवश्यक है। लोभ यदि अनैतिकता या गुणहीनता के साथ जुड़ा हो, तो वह वास्तव में दुष्टता का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। यहाँ लोभ का संदर्भ केवल संपत्ति या लाभ की लालसा तक सीमित नहीं, बल्कि उसकी प्रकृति और प्रभाव की ओर संकेत है।
सत्य का संदर्भ केवल तथ्यात्मक सत्यता से नहीं, अपितु तपस्या या आत्मसंयम के साथ जुड़ा होना चाहिए, तभी मन शुद्ध माना जा सकता है। शुद्धता का अर्थ न केवल बाह्य शुद्धि, बल्कि आंतरिक मानसिक शुद्धि भी है, जो तपस्या के अभ्यास से सम्भव होती है।
सौजन्य अर्थात् सौम्यता या मैत्रीभाव यदि केवल बाह्य सजावट या आडंबर मात्र बन जाए, तो वह अपनी वास्तविक गरिमा खो देता है। गुणों का सुमहत्व तभी सार्थक होता है जब वे आंतरिक सार को दर्शाएं, न कि केवल दिखावे के लिए हों।
सद्विद्या या उत्तम ज्ञान यदि धन के साथ जुड़कर केवल सांसारिक लाभ या विनाश का कारण बने, तो उसका महत्व समाप्त हो जाता है। यहाँ धन का संदर्भ केवल भौतिक संपत्ति नहीं, अपितु शक्ति या प्रभाव भी हो सकता है जो विद्या के अपमान या नाश का कारण बनता है।
अतः, गुणों का मूल्यांकन उनके साथ जुड़े प्रभावों के अनुसार किया जाना चाहिए, न कि मात्र उनके नाम से। यह दार्शनिक दृष्टिकोण मानवीय आचार-व्यवहार की सूक्ष्मता और जटिलता को दर्शाता है, जहाँ सत्प्रवृत्तियों के सही स्वरूप और उनके परिणामों का विवेचन आवश्यक होता है।