श्लोक १७-०३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
यद्दूरं यद्दुराराध्यं यच्च दूरे व्यवस्थितम् ॥ ॥१७-०३॥
जो दूर है, जो प्राप्त करना कठिन है, और जो दूरवर्ती स्थान पर स्थित है, वे सब तपस्या से सिद्ध होते हैं क्योंकि तपस्या कठिनता को पार करती है।

यह श्लोक जीवन में उपलब्धि की प्रकृति और साधना की भूमिका पर गहन दृष्टि प्रस्तुत करता है। यहाँ दूरस्थ और कठिन-साध्य वस्तुओं या लक्ष्यों की चर्चा है, जिनका सामान्यतः मनुष्य द्वारा साधारण प्रयासों से अधिगम या प्राप्ति संभव नहीं होती। 'तपस्या' को वह महत्त्वपूर्ण साधन माना गया है जो असंभव प्रतीत होने वाले कार्यों को भी सफल बना सकती है। तपस्या केवल कठोरता या तप का नाम नहीं, बल्कि यह आत्मनियन्त्रण, संयम, और मनोबल की उच्च स्थिति का साक्षात्कार है जो व्यक्ति को बाह्य बाधाओं को पार करने में समर्थ बनाता है।

वस्तुतः, शास्त्रीय चिन्तन में तपस्या को साधना के प्रमुख अंगों में रखा गया है क्योंकि यह मन, इन्द्रिय और वासनाओं पर नियंत्रण स्थापित कर प्रगल्भता एवं धैर्य प्रदान करती है। इस प्रकार, जो लक्ष्य दूर है (स्थान अथवा उपलब्धि में), जो दुष्कर है (प्राप्ति में कठिन), और जो दूरी या असुलभता के कारण सामान्य प्रयासों से नहीं मिल सकता, उसे साधना और तपस्या द्वारा प्राप्त किया जा सकता है।

तपस्या की सफलता के पीछे एक दार्शनिक सत्य निहित है: यह कि बाहरी जगत की कठिनाइयाँ यदि आंतरिक दृढ़ता और समर्पण के सामने होती हैं, तो वे उपनिविष्ट और पराजित हो जाती हैं। इसलिए, दूरस्थ लक्ष्य या परिष्कृत सिद्धि के लिए, तपस्या एक अनिवार्य प्रक्रिया है जो जीवन की चुनौतियों को पार कर, मनुष्य को आध्यात्मिक तथा सांसारिक दोनों ही दृष्टियों से सक्षम बनाती है।

अतः, यह दृष्टिकोण केवल भौतिक या लौकिक उपलब्धियों के लिए ही नहीं, अपितु उच्चतर आत्मिक उपलब्धि के लिए भी उपयुक्त है, जहाँ 'दूरस्थता' साधना के माध्यम से ही घटित होती है। यह विचार साधना, धैर्य, और आत्मनियन्त्रण के महत्व को दर्शाता है, जो मनुष्य को केवल सफलता नहीं, अपितु वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति भी प्रदान करता है।