श्लोक १७-०२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कृते प्रतिकृतिं कुर्याद्धिंसने प्रतिहिंसनम् ।
तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत् ॥ १७-०२
कृत्रिम हिंसासमान कर्म के प्रति प्रतिकार स्वरूप हिंसा करना उचित है। उसमें दोष नहीं लगता क्योंकि दुष्ट को दुष्ट कर्म के अनुसार ही आचरण करना चाहिए।

हिंसा का विचार शास्त्रों में अत्यंत सूक्ष्म एवं जटिल रूप में प्रकट होता है। सामान्यत: हिंसा को नकारात्मक और अनैतिक माना जाता है, किन्तु न्यायशास्त्र तथा नीतिशास्त्र में हिंसा के प्रति दृष्टिकोण संदर्भपरक होता है। इस श्लोक में प्रतिहिंसा अर्थात् हिंसा के विरुद्ध हिंसा के सिद्धांत को स्पष्ट किया गया है। जब कोई हिंसा की जा रही हो, तो उसे बिना प्रतिक्रिया के सहन करना अधार्मिक एवं अनैतिक माना जाता है। अतः हिंसा के विरुद्ध हिंसा करना न केवल उचित है, बल्कि आवश्यक भी माना गया है, विशेषतः यदि वह हिंसा दुष्ट द्वारा की गई हो।

यहाँ 'कृते प्रतिकृतिं कुर्यात्' का अर्थ है कि यदि कोई हिंसा की जाती है, तो उसका यथोचित और न्यायसंगत प्रतिकार करना चाहिए। प्रतिकार की हिंसा का दोष नहीं माना जाता, क्योंकि यह निवारक एवं सुरक्षा मूलक होती है। दुष्टों के प्रति दुष्ट कर्म अपेक्षित है, क्योंकि वे सदाचार का पालन नहीं करते और अनैतिकता से कार्य करते हैं। शास्त्रों में यह धारणा विद्यमान है कि न्याय और धर्म की रक्षा के लिए दुष्ट के दुष्ट आचरण का सामना उसी प्रकार की कार्रवाई से किया जाना चाहिए।

न्यायशास्त्र एवं चाणक्यनीति में प्रतिहिंसा को सत्ता के संधारक तथा सामाजिक व्यवस्था की रक्षा के रूप में देखा गया है। यह स्थिति, एक प्रकार से, वैध आत्मरक्षा के सिद्धांत से जुड़ी हुई है, जहाँ व्यक्ति या समाज को अन्याय, अत्याचार और हिंसा से बचाने के लिए उचित प्रतिक्रिया आवश्यक होती है। दुष्ट के दुष्ट आचरण के प्रति सहिष्णुता समाज में अराजकता और अनैतिकता को जन्म देती है, इसलिए ऐसी स्थिति में प्रतिहिंसा को स्वीकार्य और आवश्यक माना गया है।

वास्तव में, इस सिद्धांत में दार्शनिक विवेचना की आवश्यकता होती है कि कब और किस सीमा तक प्रतिहिंसा उचित होती है। अतः यह मानना चाहिए कि प्रतिहिंसा केवल न्यायसंगत, आवश्यक एवं सीमित सीमा तक होनी चाहिए, जिससे व्यवस्था और धर्म की रक्षा सुनिश्चित हो सके। अतएव, हिंसा के विरुद्ध हिंसा के इस नियम में तर्क एवं नैतिकता का सम्यक समावेश होता है, जो सामाजिक न्याय और नैतिकता के आधारभूत स्तंभों को संरक्षित करता है।

धार्मिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण से, यह श्लोक अधर्म के विरुद्ध धर्म की स्थापना हेतु आवश्यक कर्तव्य का बोध कराता है, जहाँ दुष्ट को दुष्ट आचरण के अनुसार व्यवहार करना न्यायसंगत माना गया है। इसका सम्यक् पालन सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक क्षेत्रों में स्थिरता एवं न्याय के लिए अनिवार्य है।