सभामध्ये न शोभन्ते जारगर्भा इव स्त्रियः ॥ ॥१७-०१॥
ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में केवल पुस्तकों का अध्ययन पर्याप्त नहीं होता, बल्कि गुरु के सान्निध्य और मार्गदर्शन में वह ज्ञान ठीक प्रकार से अधिगमित होना आवश्यक है। जिस प्रकार सभा में गर्भवती वृद्ध स्त्रियाँ शोभा नहीं देतीं, वैसे ही अधूरा या गलत प्रकार से प्राप्त ज्ञान भी सामाजिक और व्यवहारिक स्तर पर प्रभावहीन होता है।
यह दृष्टिकोण ज्ञान के सैद्धांतिक और व्यवहारिक पक्षों के बीच के अंतर को स्पष्ट करता है। पुस्तकों के अध्ययन से ज्ञान का भंडार तो बढ़ता है, किन्तु वह तब तक पूर्ण रूप से उपयोगी नहीं होता जब तक गुरु का मार्गदर्शन न मिले और वह ज्ञान आचरण तथा व्यवहार में परिणत न हो।
शास्त्रीय विद्या के अनुसार गुरु की भूमिका केवल शिक्षण में ही नहीं, बल्कि ज्ञान को सही रूप में समझाने, संशय दूर करने और ज्ञान के प्रभावशाली उपयोग की प्रेरणा देने में भी अत्यंत महत्वपूर्ण है।
यह स्थिति शिक्षा प्रणाली की प्रासंगिकता, शिक्षार्थी के मनोविज्ञान, और सामाजिक परंपराओं के महत्व को भी प्रतिबिंबित करती है। अधूरा ज्ञान, या केवल बाह्य अध्ययन से प्राप्त ज्ञान, समाज में प्रतिष्ठा या सम्मान नहीं दिलाता।
तदर्थ, ज्ञान के सामाजिक-सांस्कृतिक प्रसार और व्यवहार में उसका प्रभाव तभी सार्थक होता है जब वह गुरु के सान्निध्य में सम्यक् अधिगमित हो और आचरण में उतर सके। इस दृष्टि से शिक्षा का पूर्णत्व केवल जानकारी संग्रहण नहीं, बल्कि ज्ञान का आचरण में रूपांतरण है।
यह विषय न केवल शैक्षिक दर्शन का महत्वपूर्ण अंग है, बल्कि यह व्यक्तिगत विकास, सामाजिक सहभागिता, और सांस्कृतिक संरक्षण के लिए भी आवश्यक है। केवल सूचना का संचय ज्ञान नहीं, बल्कि उसके सही आचरण से ही विद्या की पराकाष्ठा सिद्ध होती है।