कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥ १६-२०॥
विद्या और धन के विषय में यह विवेचन प्रमुख दार्शनिक एवं व्यवहारिक विचार प्रस्तुत करता है। पुस्तकस्थ विद्या का तात्पर्य केवल सैद्धांतिक ज्ञान से है, जो केवल ग्रन्थों में सीमित रह जाता है और व्यवहारिक जीवन में प्रभावी नहीं होता। जब कार्यकाले, अर्थात् आवश्यकता या संकट के समय, वह विद्या उपयोगी न हो, न उसे अपने हित में संचालित किया जा सके, तब वह विद्या नहीं, बल्कि केवल सिद्धांतात्मक ज्ञान मात्र बनकर रह जाती है।
इसी प्रकार धन यदि पर के स्वामित्व में चला जाए और समय पर प्राप्त न हो सके, तो वह धन भी व्यर्थ है। धन का अर्थ केवल धनात्मक वस्तु या संपत्ति न होकर उपयोगी और उपलब्ध धन होना आवश्यक है। यदि धन उपलब्ध नहीं, अथवा हस्तांतरित हो चुका हो, तो उसका कोई लाभ नहीं।
यह विचार व्यवहार एवं नीति शास्त्र के मूल तत्त्वों में से एक है, जो ज्ञान और संसाधनों के सार्थक उपयोग की महत्ता पर बल देता है। केवल नाममात्र का ज्ञान और धन उपयोगी नहीं, बल्कि क्रियाशीलता, उपलब्धता और अधिकारिता आवश्यक है। परिणामतः, ज्ञान और धन की वास्तविकता तब सिद्ध होती है जब वे संकट या आवश्यकता के समय कार्यान्वित हो सकें।
इसमें नीतिशास्त्र, मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र की अंतःसंबद्धता प्रतिपादित होती है। सिद्धांत, ज्ञान और संसाधनों की प्रासंगिकता तभी सिद्ध होती है जब उनका व्यवहार में उपयोग संभव हो। एक दृष्टिकोण से यह विचार व्यक्तित्व विकास, निर्णय क्षमता और संकट प्रबंधन के सैद्धांतिक आधार प्रदान करता है।
परंतु यह विचार एक दार्शनिक प्रश्न भी उत्पन्न करता है—क्या केवल कार्यकालीन उपयोगी ज्ञान और धन ही ज्ञान और धन कहलाना योग्य है? क्या भविष्य के लिए संचित ज्ञान और धन भी अपने प्रकार में मूल्यवान नहीं? किंतु नीति शास्त्र की दृष्टि से तत्काल उपयोगिता अधिक प्रधान है, क्योंकि वह जीवन की यथार्थ आवश्यकताओं को संबोधित करता है।
अतः ज्ञान और धन की सार्थकता उनके नियंत्रण, उपस्थिति, और कार्यान्वयन में निहित है। केवल अस्तित्व या धारणा से न वे ज्ञान हैं न धन। यह दृष्टिकोण सामाजिक व्यवहार, नैतिकता और संसाधन प्रबंधन के आयामों को गहनता से उद्घाटित करता है।