श्लोक १६-१९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
जन्म जन्म यदभ्यस्तं दानमध्ययनं तपः ।
तेनैवाभ्यासयोगेन देही चाभ्यस्यते पुनः ॥ १६-१९
प्रत्येक जन्म में जो अभ्यास होता है, जैसे दान, अध्ययन और तपस्या, उसी अभ्यासयोग के द्वारा शरीर को पुनः प्राप्ति होती है।

यहाँ जीवनचक्र के अन्तर्गत जन्म और पुनर्जन्म की प्रक्रिया को ध्यान में रखते हुए वर्णन किया गया है कि कर्मों और साधना का प्रभाव केवल एक जीवन तक सीमित नहीं रहता, अपितु यह अनेक जन्मों में निरंतर होता रहता है। जो कर्म जैसे दान देना, अध्ययन करना तथा तप करना नियमित रूप से किए जाते हैं, वे व्यक्ति के अस्तित्व में गहरे प्रभाव डालते हैं। इस प्रभाव से पुनर्जन्म के समय व्यक्ति उस कर्मपथ या साधना के अनुरूप शरीर और परिस्थिति प्राप्त करता है।

दान, अध्ययन, तपस्या ये तीनों कर्म साधनाएँ हैं, जो जीवन को अध्यात्मिक दिशा प्रदान करती हैं। दान से मनुष्य में परोपकार और स्वार्थहीनता की भावना जाग्रत होती है, अध्ययन से ज्ञान का विकास होता है, और तपस्या से इन्द्रियों का संयम तथा आत्मनियन्त्रण प्राप्त होता है। इन तीनों के अभ्यास से व्यक्ति की चेतना शुद्ध होती है और वह पुनर्जन्म के चक्र में उस उन्नत चेतनास्तर के अनुसार नए शरीर को प्राप्त करता है।

अर्थात्, जन्म मृत्यु के चक्र में न केवल कर्मों का फल प्राप्त होता है, बल्कि पिछले जन्मों में जो अभ्यास किया गया, वह पुनः शरीर ग्रहण करने में सहायक होता है। यह विचार पुनर्जन्म के सिद्धांत को दर्शाता है जहाँ जीव के जीवन की दिशा और गुणधर्म उसके पूर्व कर्मों और अभ्यासों द्वारा निर्धारित होती है। यह पुनरावृत्ति कर्मयोग की निरन्तरता और अभ्यास की महत्ता को दर्शाती है, जिससे समझा जा सकता है कि स्थायी परिवर्तन केवल लगातार अभ्यास से ही संभव है।

इस सिद्धांत से मनुष्य को यह शिक्षा मिलती है कि जो कर्म और साधना वह आज करता है, उसका प्रभाव केवल वर्तमान जीवन तक सीमित नहीं, अपितु भविष्य के जन्मों तक फैला होता है। इसलिए सतत अभ्यास, साधना और धार्मिक कर्मों का पालन अत्यंत महत्वपूर्ण है ताकि जन्मों के चक्र से मुक्ति प्राप्त हो सके या आत्मा का विकास हो सके।