श्लोक १६-१८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
संसारविषवृक्षस्य द्वे फलेऽमृतोपमे ।
सुभाषितं च सुस्वादु सङ्गतिः सज्जने जने ॥ १६-१८
संसार के विषवृक्ष की दो फलें अमृत के समान हैं।
सुश्लिष्ट वचन और सज्जन व्यक्तियों के साथ संगति मधुर होती है।

संसार को विषवृक्ष के रूप में दृष्टिगत करना गहन दार्शनिक दृष्टिकोण है, जिसमें संसार के दुःख और मोह को वृक्ष की विषाक्तता से तुल्यकृत किया गया है। इस विषवृक्ष के दो फल अमृतोपमा अर्थात् अमृत के समान मूल्यवान एवं सारगर्भित हैं। यह रूपक सूचित करता है कि संसार के बंधनों में भी कुछ तत्व ऐसे होते हैं, जो जीव के कल्याण के लिए अमृत समान होते हैं। यह द्वैतता संसार के जीवन की द्वैत स्थिति को दर्शाती है जहाँ दुःख और सुख एकसाथ विद्यमान हैं।

पहला फल 'सुभाषितं' अर्थात् उत्तम, सुश्लिष्ट, और व्यवहार योग्य वाक्य है, जो जीव को ज्ञान, विवेक, और सदाचार की ओर प्रेरित करता है। यह वाक्य जीवन में मधुरता, स्थिरता और शांति प्रदान करता है।

दूसरा फल 'सुस्वादु सङ्गतिः' है, जिसका आशय है सज्जन जनों के साथ संगति। सज्जनों का साथ मनुष्य के जीवन में सकारात्मक प्रभाव उत्पन्न करता है, जिससे चरित्र का विकास होता है, बुद्धि और विवेक का विस्तार होता है। इस प्रकार, सज्जन जनों के साथ संबंध और संवाद भी अमृत के समान पवित्र एवं पोषणकारी हैं।

यह श्लोक संसार के बंधनों में छिपे हुए पोषक तत्वों को उजागर करता है। विषवृक्ष की तरह संसार, भले ही कष्टदायक हो, किन्तु उसके फल अर्थात् सुभाषित वचन और सज्जन संगति जीवन के अनमोल संसाधन हैं, जो जीवन की विषाक्तता को क्षीण कर अमृततुल्य सुख प्रदान करते हैं।

विवेचनात्मक दृष्टि से, यह मानव व्यवहार और सामाजिक संबंधों के महत्व को प्रतिपादित करता है, जहां शब्दों की पवित्रता और समाज के सद्गुणी सदस्य जीवन को सार्थक बनाते हैं। यह परस्पर संवाद, नैतिकता, और सामाजिक सद्भाव की आवश्यकता पर बल देता है, जो अंततः मोक्ष या मुक्ति के मार्ग की ओर ले जाते हैं।

इसलिए, संसार में विष के समान जो पीड़ा है, उसमें भी दो अमृत फल विद्यमान हैं जो मनुष्य को जीवन की कड़वाहट से पार लगाते हैं और आध्यात्मिक उन्नति के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं।