प्राणत्यागे क्षणं दुःखं मानभङ्गे दिने दिने ॥ ॥१६-१७॥
यह विचार जीवन-मरण के संदर्भ में मान-सम्मान और प्राण के बीच की प्राथमिकता को स्पष्ट करता है। जहाँ प्राण त्यागना जीवन का अंत है, परन्तु मान की हानि मनुष्य के अस्तित्व को निरंतर प्रभावित करती है। प्राण त्यागना, यद्यपि अत्यन्त दुःखद होता है, वह एक क्षणिक अवस्था है, एक सीमित काल के लिए ही दुःख का अनुभव। परन्तु मानभंग, जो कि सामाजिक और आत्मसम्मान की हानि है, वह निरंतर मानसिक वेदना उत्पन्न करता है, जो दिन-प्रतिदिन गहरा होता रहता है। मनुष्य का जीवन सामाजिक और मानवीय सम्बन्धों पर आधारित है, अतः मान की हानि उससे जुड़ी मानसिक और सामाजिक पीड़ा को दर्शाती है।
आधुनिक संदर्भ में, मानहानि का अर्थ केवल व्यक्तिगत अपमान या सामाजिक असम्मान नहीं है, बल्कि यह मनोवैज्ञानिक तनाव, आत्म-सम्मान की गिरावट और व्यक्तित्व के क्षरण का सूचक है। प्राणत्याग एक शारीरिक परिघटना है, जो शाश्वत शांति या मुक्तिपथ के लिए हो सकती है, किंतु मानभंग मनोवैज्ञानिक और सामाजिक अस्तित्व के लिए एक निरंतर खतरा है। इस दृष्टि से, जीवन का संरक्षण केवल शारीरिक जीवित रहने तक सीमित नहीं, अपितु सामाजिक और मानसिक सम्मान के संरक्षण तक विस्तृत है।
यह सन्दर्भ नैतिकता और व्यवहार की परिभाषा को भी प्रभावित करता है। सामाजिक मान-सम्मान की रक्षा न केवल व्यक्तिगत गरिमा के लिए आवश्यक है, अपितु यह समाज की संरचना और मानवीय सम्बन्धों की स्थिरता के लिए भी अनिवार्य है। मानहानि का अनुभव व्यक्ति को मानसिक अवसाद, आत्म-निराशा और सामाजिक अलगाव की ओर ले जाता है, जो अंततः जीवन के आनंद और उद्देश्य को प्रभावित करता है। अतः, जीवन की अपेक्षा मान का संरक्षण, विशेषतः सामाजिक और मानसिक स्तर पर, अधिक महत्वपूर्ण समझा जाना चाहिए।
दार्शनिक दृष्टि से, यह विचार आत्मा और शरीर के मध्य संबंध को भी उद्घाटित करता है। शरीर का अस्तित्व प्राण के संरक्षण से जुड़ा है, परन्तु आत्मा और व्यक्तित्व का अस्तित्व मान और सम्मान के आधार पर निर्मित होता है। जब मानभंग होता है, तो आत्मा की पीड़ा अधिक गहरी होती है, जो कि प्राणत्याग से भिन्न है। यहाँ आत्मा का अर्थ केवल आध्यात्मिक तत्व से नहीं, बल्कि व्यक्ति की सामाजिक और मानसिक पहचान से भी है।
अतः जीवन में मान का संरक्षण एक दीर्घकालीन मानसिक और सामाजिक संतुलन के लिए अनिवार्य है, जो केवल शारीरिक जीवन से अधिक व्यापक है। मानहानि से उत्पन्न मानसिक वेदना का अनुभव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रभाव डालता है, जो स्थायी दुःख और असंतोष का कारण बनता है। यह श्लोक इस बात पर प्रकाश डालता है कि मनुष्य के लिए क्षणिक प्राणत्याग की अपेक्षा निरंतर मानभंग अधिक कष्टदायक और जीवन-धारणा के लिए गंभीर है।