श्लोक १७-२०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पश्यसि किं बाले पतितं तव किं भुवि ।
रे रे मूर्ख न जानासि गतं तारुण्यमौक्तिकम् ॥१७-२०॥
हे बालक, क्या तुम देख रहे हो कि तेरा क्या पतन हुआ है इस पृथ्वी पर? हे मूर्ख, तू नहीं जानता कि तेरी युवा अवस्था बीत गई है।

इस श्लोक में युवा अवस्था के क्षय और उसकी अनिवार्य समाप्ति पर विचार प्रस्तुत है। जीवन के प्रारंभिक चरण को तारुण्य कहा जाता है, जो उत्साह, शक्ति, और संभावनाओं से पूर्ण होता है। परंतु समय के प्रवाह में यह अवस्था अस्थायी है और अवश्यं समाप्त हो जाती है। युवा अवस्था की क्षणभंगुरता को अज्ञान या मूर्खता के साथ न देखना चाहिए, क्योंकि इसका ज्ञान जीवन को यथार्थ के प्रति सजग करता है। युवा अवस्था का अधोगमन, जीवन के अन्य चरणों की ओर अग्रसरता का सूचक है और इसका अनुभव स्वयं में परिपक्वता की ओर बढ़ने का अवसर प्रदान करता है।

तारुण्य की समाप्ति का यह उद्घोष मनुष्य को वर्तमान में जड़े रहने की बजाय जीवन के गहन तथ्यों का सामना करने के लिए प्रेरित करता है। मूर्खता यहाँ उस अवचेतनता को सूचित करती है जिसमें युवा अपने क्षय को न समझकर अपने अस्तित्व और कर्तव्यों के प्रति अज्ञानशील रहता है।

दर्शनशास्त्र में समय का प्रवाह और कालचर्या अव्यक्त नियम हैं जो प्रत्येक जीव के लिए निश्चित हैं। युवा अवस्था की समाप्ति का स्मरण, जीवन के चक्र को समझने और उसके अनुरूप कर्मशीलता के विकास में सहायक है। यह श्लोक जीवन के अनित्य स्वरूप को रेखांकित करते हुए, चेतना और विवेक की आवश्यकता की ओर संकेत करता है, जिससे न केवल स्वयं का बल्कि समाज का कल्याण भी संभव होता है।