नश्यन्ति विपदस्तेषां सम्पदः स्युः पदे पदे ॥ ॥१५॥
परोपकार वह अंतःप्रेरणा है जो मनुष्य को अपनी सीमित स्वार्थपरता से परे जाकर अन्य के हित में कार्य करने के लिए प्रेरित करती है। यहाँ यह विचार दिया गया है कि जिनके हृदय में परोपकार की भावना सदा जागरूक रहती है — वह केवल एक occasional virtue नहीं, प्रत्युत हृदयस्थ एक निरंतर जागरूक प्रेरणा होती है — उन व्यक्तियों के लिए जीवन की विपत्तियाँ स्वयं ही नष्ट हो जाती हैं।
यह कोई रहस्यमयी कल्पना नहीं, प्रत्युत गम्भीर नैतिक मनोविज्ञान है। परोपकारी व्यक्ति का चित्त आत्मकेन्द्रित नहीं होता, वह व्यापक होता है; अतः संकटों का सामना करते समय वह न केवल अपनी शक्ति, अपितु सामूहिक सहयोग, श्रद्धा, और आशीर्वादों की भी प्राप्ति करता है। परोपकार का यह मानसिक प्रभाव होता है कि वह व्यक्ति के भीतर करुणा, धैर्य, सहिष्णुता, और साहस जैसे गुणों को सक्रिय करता है— ये ही गुण विपत्तियों का नाश करने वाले हैं।
यहाँ एक प्रकार से विपत्ति और समृद्धि की धाराओं का तात्त्विक सम्बन्ध भी दर्शित होता है: परोपकार की प्रेरणा एक आन्तरिक 'संस्कार' है, जो मन के गहनतम स्तर से उद्भूत होता है। यह केवल बाह्य कृत्य नहीं, प्रत्युत उस आन्तरिक संवेदना का रूप है जो दूसरे के दुःख को अपने जैसा अनुभव करती है। जब यह संवेदना जागरूक रहती है, तब व्यक्ति आत्म-लालित्य को त्यागकर, जीवन को यथार्थ सामाजिक दायित्व के रूप में जीने लगता है। ऐसे जीवन में विपत्तियाँ अल्पप्रभ होती हैं, क्योंकि उनके सामने सत्कर्म की दीर्घछाया होती है।
यह कथन समृद्धि को 'पदे पदे' — हर चरण पर — सुलभ मानता है, यदि परोपकार का संकल्प दृढ़ हो। यह केवल आर्थिक समृद्धि की बात नहीं, प्रत्युत हृदय की समृद्धि, विचारों की स्पष्टता, मानवीय सम्बन्धों की प्रौढ़ता, और आत्मसंतोष की गहराई की ओर भी संकेत करता है। विपत्ति का अभाव केवल बाह्य अर्थ में नहीं, आन्तरिक साहस और संतुलन से भी निर्धारित होता है।
यदि प्रत्येक मनुष्य अपने हृदय में परोपकार की इस जागरूकता को स्थान दे, तो वह न केवल अपने जीवन को सरल, अर्थवान और सुखकर बना सकता है, प्रत्युत समाज में एक ऐसी ऊर्जा का संचार कर सकता है, जो सामूहिक रूप से विपत्तियों को क्षीण कर समृद्धि का मार्ग प्रशस्त करे। अंततः, परोपकार कोई कर्तव्य नहीं, वह मनुष्य की आत्मीयता की चरम अवस्था है, जिसमें 'मैं' और 'तू' के भेद लुप्त हो जाते हैं।