सद्यः शक्तिहरा नारी सद्यः शक्तिकरं पयः ॥ ॥१४॥
तुरन्त शक्ति हरनेवाली है स्त्री, तुरन्त शक्ति देनेवाला है दूध।
वाणी की सार्थकता और प्रभावशीलता एक अत्यंत गूढ़ और प्रत्यक्ष विषय है, जो केवल सामाजिक संवाद की दृष्टि से नहीं, अपितु मानसिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक विकास के संदर्भ में भी केंद्रीय भूमिका निभाती है। जब मुख से निकली हुई वाणी अर्थहीन, अनियंत्रित, अथवा व्यर्थ होती है — जिसे 'तुण्डी' अर्थात बकवाद कहा गया है — तब वह व्यक्ति की प्रज्ञा, उसकी विवेकशक्ति और तर्कक्षमता को तुरंत हर लेती है। यह बकवास केवल मानसिक थकावट उत्पन्न नहीं करती, बल्कि निर्णय क्षमता को विकृत कर देती है। दूसरी ओर, विचारपूर्वक, उद्देश्यपूर्ण और स्पष्ट वाणी तत्काल बुद्धि को प्रज्वलित करती है; उसका प्रभाव केवल श्रोता पर नहीं, स्वयं वक्ता की चित्तवृत्तियों पर भी पड़ता है। यह वाक्य की निर्मिति और श्रोतव्यता की नैतिकता को उद्घाटित करता है।
स्त्री को 'शक्तिहरा' कहने में निहित है वह द्वैधता, जो उसकी स्वभावगत छवियों के माध्यम से समाज में प्रतिबिम्बित होती है। यहां स्त्री की भूमिका केवल एक लिंग-विशेष की नहीं, बल्कि आकर्षण, आसक्ति, विलास, और चित्त की अस्थिरता को प्रतीक रूप में धारण करती है। जब व्यक्ति स्त्री की ओर आकर्षित होता है — विशेषतः आसक्ति की स्थिति में — तब उसकी मनोशक्ति, आत्मनियंत्रण और लक्ष्यबद्धता का अपहरण तत्काल होता है। यह नारी का मिथकीय रूप नहीं, प्रत्युत समाज में रचनात्मक अथवा विकर्षक शक्तियों की पारस्परिकता का विवेचन है।
विपरीततः, दूध की तुलना एक ऐसे साधन से की गई है जो तुरंत शक्ति देता है। यह केवल भौतिक बल नहीं, अपितु मातृत्व, पोषण, और जीवनीशक्ति का प्रतीक है। यह प्रतीकात्मकता गाय, माता, और प्रकृति के पोषक रूप की ओर संकेत करती है। जैसे वाणी केवल ध्वनि नहीं, अर्थ है; स्त्री केवल देह नहीं, मानसिक-सामाजिक प्रभाव है; वैसे ही दूध केवल तरल नहीं, जीवनप्रद ऊर्जा का स्वरूप है।
यह चतुष्टयी — बकवास, वाणी, स्त्री, और दूध — एक गूढ़ तुलनात्मक विमर्श को उद्घाटित करती है: कुछ वस्तुएं क्षणमात्र में विनाशकारी होती हैं, तो कुछ उतनी ही तीव्रता से सृजनात्मक। विवेकशीलता इसी में निहित है कि कौन-से संस्पर्श को ग्रहण करना है और किसे त्यागना है। यही निर्णय अंततः व्यक्ति के अस्तित्व, उसकी चेतना और उसकी साधना को परिभाषित करता है।