श्लोक १७-१६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
यदि रामा यदि च रमा यदि तनयो विनयगुणोपेतः ।
तनये तनयोत्पत्तिः सुरवरनगरे किमाधिक्यम् ॥१७॥
यदि लक्ष्मीप्रसाद प्राप्त हो, यदि रमा (लक्ष्मी) स्वयं साथ हो, यदि पुत्र भी विनय और गुणों से युक्त हो—तो फिर पुत्र का जन्म देवलोक की राजधानी में हुआ या नहीं, इसमें क्या विशेषता रह जाती है?

वास्तविक सम्पन्नता की परिभाषा बाह्य वैभव से परे है। केवल संपत्ति का होना पर्याप्त नहीं; यदि वह 'रमा' अर्थात् लक्ष्मी के रूप में स्थिर हो, यदि उसका साथ 'रामा' अर्थात् सद्गुणयुक्त पत्नी के रूप में हो, और यदि उस युगल से उत्पन्न संतान संस्कार, विनय और गुणों से युक्त हो, तो जीवन स्वयं में दैविक स्वरूप को प्राप्त कर लेता है। तब यह विचार अप्रासंगिक हो जाता है कि उस संतान का जन्म वास्तव में स्वर्ग में हुआ या पृथ्वी पर।

यह कथन, सामाजिक आदर्शों के अत्यंत गहन विवेचन का प्रतिफल है। 'रमा' केवल ऐश्वर्य नहीं, वह एक संवेदनात्मक, सौम्य, और शीलयुक्त जीवनसंगिनी का प्रतीक है। 'रामा'—यहाँ पुरुष का नाम न होकर एक प्रकार से पुरुष का धार्मिक, न्यायशील और आदर्श रूप है। ऐसे दो तत्वों के संयोग से उत्पन्न संतान यदि 'विनयगुणोपेतः' हो, तो यह केवल जैविक सृष्टि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनरुत्पत्ति (cultural regeneration) की प्रक्रिया बन जाती है।

‘सुरवरनगरे’—देवताओं के उत्कृष्ट नगर में जन्म लेना, संस्कृत मानस में सर्वोच्च भाग्य का प्रतीक है। किन्तु यहाँ यह प्रतिपादित है कि यदि संतान गुणों से युक्त हो, तो वह पृथ्वी पर ही स्वर्ग की स्थिति का निर्माण कर सकती है। इस प्रकार, जीवन की श्रेष्ठता किसी 'स्थल' में नहीं, अपितु उस 'स्थल पर जन्मे व्यक्ति' की अंतःसंरचना में निहित होती है।

आज की सामाजिक दृष्टि से यह विचार पुनः अत्यंत सान्दर्भिक हो उठता है। पारिवारिक ताना-बाना, जहाँ विवेकशीलता, नारी के आत्मसम्मान तथा संतान के संस्कार का सामंजस्य हो—वह जीवन की आध्यात्मिक पूर्णता का साक्षात्कार है। विपरीततः, यदि केवल धन है किन्तु वह सौम्यता, विवेक और विनय से रहित है, तो वह सम्पदा नहीं, बोझ बन जाती है।

यह विचार शास्त्रार्थ की उस मूलधारा से जुड़ता है जहाँ मानवीय उपलब्धियों को केवल बाह्य उपलब्धियों के रूप में नहीं, बल्कि आध्यात्मिक एवं नैतिक शुद्धता के रूप में परखा जाता है।