इन्द्रोऽपि लघुतां याति स्वयं प्रख्यापितैर्गुणैः ॥ ॥१६॥
गुण की सत्ता केवल उसके अस्तित्व में नहीं, अपितु उसकी स्वीकृति में भी निहित होती है। परकीय प्रशंसा, विशेषतः निष्पक्ष समालोचकों की, सामाजिक मान्यता के लिए एक निर्णायक तत्व बनती है। यह केवल 'कैसे हैं' का प्रश्न नहीं, अपितु 'कैसे देखे जाते हैं' का भी प्रश्न है। गुण यदि केवल स्ववर्णन में सीमित रह जाए, तो वह आत्मप्रशंसा का आभास देता है—जिससे शंका, अविश्वास एवं आडम्बर की गन्ध उत्पन्न होती है। जो स्वयं अपने गुणों का बखान करता है, वह शक्ति की नहीं, स्वीकृति की भीख माँग रहा होता है। वहाँ गुण नहीं, आग्रह मुखर होता है।
प्रशंसा का यथार्थ मूल्य तब होता है जब वह निष्कपट हो, स्वप्रेरित हो, तथा स्वातंत्र्य से उत्पन्न हो। ऐसी प्रशंसा व्यक्तित्व के किसी गुण का दर्पण बनती है, जिससे केवल गुण नहीं, उनका प्रभाव भी प्रमाणित होता है। जब कोई निर्गुण भी केवल परप्रशंसा के कारण गुणी समझा जाता है, तो यह इस बात का संकेत है कि सामाजिक दृष्टिकोण में 'गुण' वस्तुतः 'प्रतिष्ठा' की छाया में मापा जाता है। इस प्रकार, सामाजिक प्रतिमानों में गुण का बोध अनुभूति से नहीं, सम्मति से उत्पन्न होता है।
यह अन्तर्दृष्टि एक अन्य गम्भीर तथ्य की ओर इंगित करती है—सत्य और प्रसिद्धि में मौलिक भेद है। जो स्वयं अपने गुणों का प्रचार करता है, वह यद्यपि सत्य बोल रहा हो, तथापि उसका कथन स्वयं की प्रतिष्ठा को दुर्बल करता है। आत्मप्रशंसा आत्मविश्वास का नहीं, आत्मसन्देह का लक्षण बनती है, विशेषतः जब वह सुननेवालों की स्वीकृति के बिना उच्चरित हो। यहाँ 'इन्द्र' का उदाहरण अनायास नहीं—जो सर्वोच्च है, वह भी यदि अपनी प्रशंसा स्वयं करने लगे, तो उसका प्रभाव अल्प होता है। शक्ति की सर्वोच्चता भी यदि सत्य नहीं दीखती, तो वह अपयश में बदल सकती है।
यह विचारधारा व्यक्ति के सामाजिक आचरण में सूक्ष्म विवेक की अपेक्षा करती है। योग्यतम भी तब तक मान्यता नहीं प्राप्त कर सकता जब तक उसे अन्यों से पुष्टि न मिले। इसलिए यह केवल गुण का प्रश्न नहीं, अपितु गुण के प्रस्तुतीकरण का भी है। अन्ततः, यह व्यक्ति को आत्मप्रवंचना और सामाजिक प्रामाणिकता के बीच की महीन रेखा को समझने की आवश्यकता की ओर उन्मुख करता है।