श्लोक १६-०९

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
विवेकिनमनुप्राप्ता गुणा यान्ति मनोज्ञताम् ।
सुतरां रत्नमाभाति चामीकरनियोजितम् ॥ ॥९॥
विवेकी पुरुष को प्राप्त गुण विशेष रूप से मनोहर हो जाते हैं। जैसे कि स्वर्ण में जड़ा हुआ रत्न विशेष रूप से शोभायमान होता है।

गुण का मूल्य उसके स्वयं के अस्तित्व से कहीं अधिक उस पात्र पर निर्भर करता है जिसमें वह प्रतिष्ठित होता है। विवेकशील मनुष्य में प्रतिष्ठित गुण न केवल अपनी स्वाभाविक गरिमा में रहते हैं, बल्कि उस मनुष्य के सम्यक् प्रयोग, संयम और प्रसंगबोध के कारण वे अधिक प्रभावशाली, आकर्षक और व्यापक अर्थ में उपयोगी हो जाते हैं। विवेक आत्मचिंतन और सूक्ष्म दृष्टि से जन्म लेता है, और इसी विवेक के माध्यम से गुण आत्मानुशासन, संतुलन, और समुचित व्यवहार का रूप ले लेते हैं।

वह रत्न जो सामान्य स्थिति में भी मूल्यवान होता है, यदि स्वर्ण जैसे शुद्ध और कीमती पदार्थ में जड़ा जाए, तो उसकी आभा, आकर्षण और सामाजिक मूल्य कहीं अधिक बढ़ जाता है। यह रूपक दर्शाता है कि गुण का यथार्थ रूप तभी उभरता है जब वह उपयुक्त चेतना और चरित्र में प्रकट होता है। यह केवल गुण होने से नहीं, बल्कि उस गुण के प्रयोगकर्ता की पात्रता और समझ से ही उसकी ‘मनोज्ञता’—मनोहरता—उत्पन्न होती है।

सामाजिक सन्दर्भ में, यह सिद्धान्त नेतृत्व, ज्ञान, शक्ति या वैभव से युक्त व्यक्ति के आचरण के माध्यम से विशेष महत्त्व प्राप्त करता है। एक अल्पबुद्धि व्यक्ति में विद्यमान प्रतिभा भ्रम उत्पन्न कर सकती है, जबकि वही प्रतिभा एक विवेकी में विवेकपूर्ण कार्यों और समाधान की ओर ले जाती है। इसीप्रकार, विद्या, साहस, दया, या वैराग्य जैसे गुणों की परख केवल उनके उपस्थिति से नहीं, वरन् इस बात से होती है कि वे किस प्रकार के मनुष्य में स्थित हैं, और किन प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त हो रहे हैं।

गुण का रूप एक प्रकार से द्रव्यसंज्ञक है, परन्तु गुण की अभिव्यक्ति, उसका संप्रेषण और उसका प्रभाव—ये सभी उस आधार पर निर्भर करते हैं जहाँ वह स्थित है। यही कारण है कि शिक्षित और अशिक्षित, ज्ञानी और अज्ञानी, त्यागी और भोगी, दो व्यक्तियों में एक ही गुण अलग-अलग फल उत्पन्न करता है। जब विवेक का आलोक गुणों पर पड़ता है, तब वे केवल गुण न रहकर सामाजिक-दार्शनिक मूल्यों के वाहक बन जाते हैं।

यह चिंतन इस प्रश्न को भी उद्घाटित करता है कि क्या गुण स्वतः प्रासंगिक हैं, या उनकी प्रासंगिकता भी सापेक्ष है? यदि उत्तर सापेक्ष है, तो गुणों का मूल्यांकन भी स्वायत्त नहीं रह सकता, बल्कि उसे उस व्यापक जीवन-प्रवृत्ति, दृष्टिकोण और संकल्प के आलोक में देखना होगा जिसमें वे प्रकट होते हैं। इसी से यह प्रश्न भी उठता है—क्या गुण स्वयं में पर्याप्त हैं, या उन्हें विवेक की दीक्षा और अनुप्रयोग के द्वारा ही उनके श्रेष्ठतम रूप में लाया जा सकता है?

विवेकी की उपस्थिति गुणों को केवल बाह्य शोभा नहीं, अपितु एक आन्तरिक सुसंस्कृति भी प्रदान करती है। इस प्रकार, गुण का मूल मूल्य उस चेतना में निहित होता है जो उसका मार्गदर्शन करती है—जैसे रत्न के सौन्दर्य की पूर्णता उस सुवर्णभूत आवरण में है जो उसे स्थायित्व, प्रभा और गाम्भीर्य प्रदान करता है।