पूर्णेन्दुः किं तथा वन्द्यो निष्कलङ्को यथा कृशः ॥ ॥१६-०७॥
गुण का मूल्य उसकी उपस्थिति में नहीं, अपितु उसकी आन्तरिक उत्कृष्टता में होता है। यह विचारधारा उस मूलभूत दृष्टिकोण को उद्घाटित करती है जो किसी व्यक्ति, वस्तु या सत्ता के मूल्यांकन में मात्र उसकी बाह्य भव्यता को ही निर्णायक नहीं मानता। 'सम्पद्' — धन, वैभव, संसाधन — चाहे जितने भी व्यापक या आकर्षक क्यों न हों, यदि उसमें गुण न हो, तो वह पूजनीय नहीं बनता। यहाँ 'गुण' न केवल चारित्रिक विशेषताओं या नैतिक आचरण को इंगित करता है, अपितु उसकी समग्र उपयोगिता, परोपकारिता, औचित्य और भावात्मक प्रभाव को भी समाहित करता है।
पूर्णचन्द्र के प्रतीक के माध्यम से यह दृष्टान्त और अधिक स्पष्ट होता है। सामान्यतः, भौतिक जगत् में बृहत् वस्तु अधिक प्रभावशाली या प्रशंसनीय मानी जाती है। परन्तु यहाँ, 'कृशः' — अर्थात् क्षीण, छोटे — चन्द्रमा को इसलिए अधिक आदरणीय कहा गया है क्योंकि उसमें कलङ्क नहीं है। यह प्रतीक इस बात की ओर संकेत करता है कि निर्दोषता, शुद्धता, एवं आन्तरिक सौंदर्य, आकार, समृद्धि या विस्तार से अधिक मूल्यवान हैं। मानव समाज में भी यह धारणा सदैव से रही है कि महानता मात्र अधिकार या प्रभुत्व से नहीं आती, बल्कि शील, सद्गुण, करुणा और विवेक से आती है।
यह प्रतिपादन अनेक दार्शनिक समस्याओं को भी छूता है। एक यह कि — क्या मूल्य की अन्तर्निहितता वस्तु की प्रकृति में है या उसके प्रभाव में? जब सम्पदा की तुलना गुणों से होती है, तब यह प्रश्न प्रासंगिक हो उठता है। गुण वह है जो स्वयं के कारण पूजित होता है — न कि किसी बाह्य यश या शक्ति के कारण। इस प्रकार, गुण स्वयंप्रकाशक होता है, यथा दीपक का तेज।
किंतु आधुनिक सामाजिक संरचनाओं में यह धारणा लगातार चुनौती के सामने है। आज के संदर्भ में, जहाँ मूल्यांकन की कसौटी बार-बार दृश्य प्रभाव, सामाजिक स्थिति, वित्तीय सामर्थ्य या विपणन पर आधारित होती है, वहाँ यह उद्घोष अत्यन्त प्रासंगिक बन जाता है। यह सन्देश देता है कि यदि किसी समाज में गुणों की प्रतिष्ठा नहीं है, तो वह समाज दीर्घकालिक दृष्टि से पतन की ओर अग्रसर हो सकता है।
अन्ततः, यह दृष्टिकोण हमें पुनः स्मरण कराता है कि वास्तविक मूल्य वे हैं जो माप नहीं जाते — न कि जिनकी मात्रा अधिक होती है।