न निर्मितो न चैव न दृष्टपूर्वो
न श्रूयते हेममयः कुरंगः ।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य
विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥ १६-०५॥
न श्रूयते हेममयः कुरंगः ।
तथाऽपि तृष्णा रघुनन्दनस्य
विनाशकाले विपरीतबुद्धिः ॥ १६-०५॥
न तो वह बनाया गया, न ही पहले कभी देखा गया,
और न ही सुनाई देता है कि कोई सोने का हिरण हो।
फिर भी रघुवंश का नन्दन उसे पाने की इच्छा करता है—
विनाश के समय बुद्धि उल्टी हो जाती है।
और न ही सुनाई देता है कि कोई सोने का हिरण हो।
फिर भी रघुवंश का नन्दन उसे पाने की इच्छा करता है—
विनाश के समय बुद्धि उल्टी हो जाती है।
मानवविवेक की दुर्बलता का सबसे गहरा चित्र वह क्षण है, जब बुद्धि स्वयं अपने नाश की योजना बनाने लगती है। ऐसा तब होता है जब भीतर कोई आसक्ति, तृष्णा या मोह इतना तीव्र हो जाता है कि वह यथार्थ की स्पष्टता को कुंठित कर देता है। तृष्णा, जो कभी एक आकांक्षा के रूप में आरंभ होती है, धीरे-धीरे विवेक पर अधिकार जमा लेती है। फिर यह तृष्णा ऐसे भ्रमों को भी सत्य मानने लगती है, जिनका अस्तित्व ही नहीं होता। सोने का हिरण—न निर्मित, न दृष्ट, न श्रुत—किंतु फिर भी उस काल्पनिक वस्तु के पीछे दौड़ने की उत्कट इच्छा, मन के विपर्यस्त होने की चरम परिणति है।
यह केवल किसी एक पात्र या कथा का उदाहरण नहीं; यह चेतावनी है उस सार्वभौमिक नियम की, कि विनाश के पूर्व बुद्धि की दिशा उलट जाती है। यह एक अद्वितीय मनोवैज्ञानिक सत्य है कि नाश की पूर्वघटना के रूप में मानव चेतना स्वयं अपनी तर्कशक्ति को विकृत करने लगती है। जब विनाश समीप होता है, तो विचारों का स्वरूप असंगत, निर्णय प्रतिकूल और भावनाएँ अत्यधिक हो जाती हैं। उस समय व्यक्ति ऐसी वस्तुओं की ओर आकृष्ट होता है जो या तो असम्भव हैं, या सर्वथा अप्रासंगिक। इस काल में विवेक अपनी भूमिका खो देता है और कल्पना की अधीनता में कार्य करता है।
यह केवल व्यक्तिगत स्तर पर नहीं, सामाजिक, राजनीतिक, और सांस्कृतिक स्तरों पर भी उतना ही सत्य है। जब कोई संस्कृति या शासन विनाश की ओर अग्रसर होता है, तब उसके नेता और जनता ऐसे निर्णय लेते हैं जो सामान्यतः हास्यास्पद प्रतीत होते, परन्तु उस क्षण उन्हें सबसे तर्कसंगत और आवश्यक लगते हैं। नीतिशास्त्र, यथार्थवाद और बुद्धिपरकता सब विस्मृत हो जाते हैं, और स्थान लेते हैं — भ्रांति, स्वप्न और अहंकार। यह विपर्ययबुद्धि ही किसी युग, व्यक्ति या सत्ता के क्षय का पूर्वकथन है।
तृष्णा के इस स्वरूप में, व्यक्ति यथार्थ और कल्पना के बीच के भेद को खो बैठता है। उसका संसार वह नहीं जो अस्तित्वमान है, बल्कि वह है जो वह देखना चाहता है। सोने का हिरण उसका लक्ष्य बन जाता है, और उस हिरण के पीछे दौड़ते हुए वह अपने राज्य, प्रियजनों, और अंततः स्वयं को भी खो देता है।
इस चेतावनी की गहराई यह नहीं है कि वह केवल विपरीतबुद्धि का उल्लेख करता है, अपितु यह कि यह विपरीतबुद्धि एक गूढ़ नियति-प्रवृत्ति है—एक पूर्वचिह्न, जो यह इंगित करता है कि समय की धारा अब विनाश की ओर प्रवाहित हो रही है। कोई भी यदि इस मनःस्थिति को पहचानने में असमर्थ है, तो वह केवल अपना पतन शीघ्र करता है। इसलिए विवेक का अंतिम कार्य है—स्वयं को तृष्णा के मिथ्या स्वरूपों से बचाए रखना, विशेषतः तब जब लोभ और मोह अपनी सर्वोच्च गति पर हों। यही वह बिन्दु है जहाँ आत्मसाक्षात्कार और धैर्य, विनाश की धारा को विराम दे सकते हैं।