श्लोक १६-०४

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
कोऽर्थान्प्राप्य न गर्वितो विषयिणः कस्यापदोऽस्तं गताः।
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः को नाम राजप्रियः।
कः कालस्य न गोचरत्वमगमत् कोऽर्थी गतो गौरवं
को वा दुर्जनदुर्गमेषु पतितः क्षेमेण यातः पथि ॥ ॥१६॥
विषयों को प्राप्त करके कौन गर्वित नहीं हुआ? किस कामुक व्यक्ति की आपदाएँ अस्त नहीं हुईं? इस पृथ्वी पर किसका मन स्त्रियों के द्वारा विचलित नहीं हुआ? कौन राजा का प्रिय कहलाया? समय की पहुँच में कौन नहीं आया? कौन याचक गौरव को प्राप्त हुआ? और कौन दुष्टों के कठिन मार्गों में पड़कर सकुशल निकला?

प्रश्नों की यह श्रृंखला मानवीय दुर्बलताओं, भोगविलास की सीमाओं, और सांसारिक अनुभवों की अपरिहार्य वास्तविकताओं की ओर एक तीव्र संकेत करती है। यहाँ कोई निष्कर्ष नहीं प्रस्तुत किया गया, केवल जिज्ञासाएँ उभारी गई हैं—किन्तु यही जिज्ञासाएँ उत्तरों की अपेक्षा अधिक मुखर हैं। यह शैली उस दृष्टिकोण की परिचायक है जो नैतिकता और व्यवहार के मध्य गहन अन्तर्द्वन्द्व को उजागर करती है।

प्रथम प्रश्न—'विषयों को पाकर कौन गर्वित नहीं हुआ?'—यह मानवीय अहं की स्वाभाविक प्रवृत्ति की ओर संकेत करता है। भोग, अधिकार और उपलब्धि की स्थिति में गर्व, एक प्रकार का मानसिक विक्षेप है, जो आत्मनिरीक्षण को विस्मृत करा देता है। जब यह प्रश्न पूछा जाता है, तो निहित भाव यह होता है कि सामान्यतः प्रत्येक व्यक्ति किसी-न-किसी स्तर पर आत्माभिमान का शिकार बनता है। यही गर्व बहुधा पतन का कारण बनता है।

द्वितीय पंक्ति 'विषयी पुरुष की आपदाएँ किसकी नहीं हुईं?' यह यथार्थ को दर्शाती है कि विषयों के प्रति आसक्ति केवल क्षणिक सुख का बोध कराती है, दीर्घकाल में वह दारुण संकट का कारण बनती है। मन, इन्द्रियों की आकांक्षाओं में रमता हुआ, न केवल अपने विवेक को खो बैठता है, अपितु आपदा के प्रति अनभिज्ञ भी रहता है। यह मानसिक दुर्बलता सामाजिक, वित्तीय, एवं आत्मिक संकटों को आमंत्रित करती है।

तीसरा प्रश्न स्त्रियों के द्वारा मन के विचलन से सम्बन्धित है। यहाँ 'स्त्री' केवल एक जैविक लक्षण नहीं, अपितु काम, आकर्षण एवं मोह की प्रतीक है। यह प्रश्न मानसिक चंचलता की एक सर्वसामान्य मानवीय दशा को उकेरता है—वह शक्ति, जो पुरुष के आत्मसंयम को चुनौती देती है। यह कोई स्त्रीविरोधी वक्तव्य नहीं, बल्कि मन के विकर्षण की प्रकृति का दिग्दर्शन है, जहाँ मोह बलवती होता है और संयम दुर्बल।

चतुर्थ प्रश्न—'कौन राजा का प्रिय रहा?'—यह सत्ता के समीप रहने की कठिनाई को उजागर करता है। राजपुरुषों के समीपस्थ होना सम्मानजनक प्रतीत हो सकता है, किन्तु वह स्थिति स्थायी नहीं। सत्ता में प्रियता अनित्य है—वह अवसर, समय, स्वार्थ, एवं स्थितियों के अनुसार परिवर्तनीय है। अतः इस प्रश्न में वैयक्तिक मूल्य की अनिश्चितता पर बल है।

पञ्चम प्रश्न समय के सर्वग्रासी स्वभाव पर ध्यान दिलाता है—'कौन काल की पहुँच से बाहर रहा?' काल सबको स्पर्श करता है: राजा, भिक्षुक, पण्डित, मूर्ख, सभी उसकी गति में आते हैं। यह अस्तित्वगत सत्य है कि कोई भी व्यक्ति समय से अछूता नहीं रह सकता। जीवन की नश्वरता की यह उद्घोषणा गहन दार्शनिक चेतना से ओतप्रोत है।

षष्ठ प्रश्न याचक और गौरव के सम्बन्ध पर है—'कौन याचक गौरव को प्राप्त करता है?' याचना में स्वयंगौरव का लोप होता है। आवश्यकता व्यक्तित्व को झुका देती है। यह प्रश्न इस सत्य की ओर इंगित करता है कि याचना की प्रक्रिया में ही आत्मसम्मान का क्षय होता है, चाहे याचक कितना भी योग्य क्यों न हो।

अन्तिम प्रश्न 'कौन दुष्टों के मार्ग में गिरकर सकुशल लौट पाया?' — यह दुष्ट संगति की जटिलताओं पर प्रकाश डालता है। दुष्ट केवल शारीरिक रूप से नहीं, मानसिक, भावनात्मक एवं नैतिक रूप से भी अपने समीपस्थों को संकट में डाल सकते हैं। उनके समीप आना, एक प्रकार की आत्मघातक यात्रा है, जहाँ से सुरक्षित वापसी सम्भव नहीं।

इन सात प्रश्नों में से प्रत्येक एक गूढ़ सत्य को उद्घाटित करता है, किन्तु उत्तर प्रकट नहीं करता। यह मौन उत्तर ही पाठक को आत्ममंथन के लिए प्रेरित करता है। विचारशीलता की मांग करता यह पाठ यह स्पष्ट करता है कि नीति की सबसे सशक्त भाषा वह नहीं जो उत्तर देती है, अपितु वह जो विवेक को झकझोरती है।