श्लोक १६-०३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
यो मोहान्मन्यते मूढो रक्तेयं मयि कामिनी ।
स तस्या वशगो भूत्वा नृत्येत् क्रीडाशकुन्तवत् ॥ ॥१६-०३॥
जो मूढ़ मोहवश यह मान बैठता है कि यह कामिनी मुझ पर अनुरक्त है, वह उसके वश में होकर क्रीड़ाशकुन्त की भाँति नृत्य करता है।

यह बोध अत्यन्त मूलगामी है कि आकर्षण, विशेषतः स्त्री-पुरुष सम्बंधों में, भ्रम और आत्मप्रवंचना का प्रमुख स्रोत बन सकता है। जब मनुष्य, विशेषतः पुरुष, यह मानने लगता है कि किसी स्त्री का आकर्षण या स्नेह उसके प्रति वास्तविक और पारस्परिक है, तो वह इस मान्यता में अपने आत्मबोध को लिप्त कर लेता है। परन्तु यदि यह धारणा मोह और अज्ञान पर आधारित है, तो यह विश्वास उसका पतनकारी नाट्य बन जाता है।

‘मूढ़’ शब्द का प्रयोग यहाँ केवल बुद्धिन्यूनता के लिए नहीं, प्रत्युत एक प्रकार की भावात्मक दृष्टिवैषम्य के लिए भी किया गया है — ऐसा मन जो स्वयं को केन्द्र मानकर सारा संसार उसी की प्रतिक्रिया में चलता हुआ देखता है। जब ऐसा मन, स्त्री के आकर्षण को अपनी पुरुषार्थसिद्धि मानकर, मोहवश उसके अनुराग की कल्पना करता है, तो वह उसकी चालों, उसकी कामनाओं और उसकी इच्छाओं के अधीन हो जाता है।

‘क्रीड़ाशकुन्त’ — यह उपमा अत्यन्त सटीक है। क्रीड़ाशकुन्त, जैसे बंदर या पालतू तोता, जिसे प्रशिक्षक जैसा चाहे नचाता है, ठीक वैसे ही, वह व्यक्ति जिसकी बुद्धि मोह से ढकी हुई है, स्त्री की चतुरता और उसकी इच्छाओं के अनुसार नृत्य करता है।

यहाँ स्त्री पुरुष की आकांक्षा के रूप में प्रतीक बनी है, न कि स्त्री मात्र के रूप में। इसलिए, कोई भी वस्तु जो हमारी वासनाओं, अपेक्षाओं और भ्रमों का केन्द्र बन जाती है, और जिसके सम्बन्ध में हम यह मान बैठते हैं कि वह हमारे ही लिए बनी है, वही 'कामिनी' बन जाती है। यदि यह धारणा भ्रान्तिपूर्ण हो — तो हम स्वतन्त्रता खो बैठते हैं।

यह दृष्टिकोण केवल पारिवारिक या लैंगिक सम्बन्धों तक सीमित नहीं है, प्रत्युत व्यापक रूप से सभी प्रकार के मोह-आधारित संबंधों और कल्पनाओं पर लागू होता है — चाहे वह सत्ता का लोभ हो, धन की लालसा हो, या सामाजिक मान्यता का आकर्षण। जब भी मनुष्य स्वयं को किसी ऐसी कल्पना का केन्द्र मानता है, जिसकी वास्तविकता अप्रमाणिक है, तो वह उन शक्तियों के अधीन हो जाता है, जो उस कल्पना को संचालित करती हैं।

दर्शनशास्त्र की दृष्टि से, यह मोह अज्ञानजन्य है — अविद्या से उत्पन्न हुआ। बुद्धि का कार्य है — वस्तुओं को उनके यथार्थ स्वरूप में देखना। किन्तु जब बुद्धि पर राग, द्वेष, अभिमान और स्वाभाविक तृष्णा की पट्टी बँध जाती है, तब वही वस्तुएँ जो तटस्थ होती हैं, आकर्षक या अरुचिकर प्रतीत होने लगती हैं। यही भ्रम मानव को परतन्त्र बना देता है।

इस परिप्रेक्ष्य में यह विचार उभरता है — क्या हमारी इच्छाएँ स्वाधीन हैं? या क्या वे हमारे भीतर ऐसे प्रतिष्ठित कल्पनालोक की उपज हैं, जिसे हमने स्वयं ही निर्मित किया है? क्या प्रेम, स्नेह, आकर्षण — ये वास्तव में दूसरे के गुणों पर आधारित होते हैं, या हमारी स्वयं की अपूर्णताओं की प्रतिक्रिया मात्र होते हैं?

जब यह बोध आता है कि किसी की रुचि, आकर्षण या व्यवहार अनुकूल भले हो, किन्तु वह हमें अपने स्वार्थ के लिए प्रयोग कर रहा हो सकता है, तब विवेक की प्रतिष्ठा सम्भव होती है। और यही बोध, मनुष्य को ‘क्रीड़ाशकुन्तवत्’ स्थिति से मुक्त कर सकता है।