हृदये चिन्तयन्त्यन्यं न स्त्रीणामेकतो रतिः ॥ ॥१६॥
स्त्रियों की चित्तवृत्तियों को लेकर यह वचन अत्यन्त तीक्ष्ण तथा बहुचर्चित भावाभिव्यक्ति करता है। यह सामान्यीकरण स्त्रीजाति की मानसिक प्रवृत्तियों के विषय में एक प्रकार का सांस्कृतिक, सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक निरीक्षण है। परन्तु यह विश्लेषण स्त्रीविरोधी भाव से नहीं, अपितु लौकिक जीवन के यथार्थ के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
शब्दशः देखा जाए तो 'जल्पन्ति सार्धम् अन्येन' का तात्पर्य है— वे एक पुरुष के साथ बातें करती हैं, 'पश्यन्ति अन्यं सविभ्रमाः' — दूसरी ओर आकर्षणयुक्त दृष्टि से किसी और को देखती हैं, तथा 'हृदये चिन्तयन्ति अन्यं' — तीसरे पुरुष को मन में सोचती हैं। इस प्रकार, यहाँ यह संकेत मिलता है कि स्त्री-मन बहुव्याप्त होता है, और उसकी रुचि, आसक्ति या रति एकमात्र व्यक्ति में स्थित नहीं रहती।
परन्तु यदि गहराई से देखा जाए तो यह स्त्री पर आक्षेप नहीं, प्रत्युत मानवीय चित्त की सामान्य प्रवृत्तियों पर व्यंग्य है। किसी भी मनुष्य का मन बहुधा स्थिर नहीं रहता। चाहे वह स्त्री हो या पुरुष — चित्त चञ्चल है, आसक्ति क्षणभंगुर है, और रसस्वाद की इच्छा नित नूतन वस्तुओं की ओर प्रवृत्त होती रहती है। यह प्रवृत्ति वैयक्तिक नैतिकता अथवा सामाजिक नियमों से नहीं, अपितु गूढ मनोविज्ञान से उपजी है।
स्त्री की मानसिकता को लेकर भारतीय परम्परा में दो प्रमुख धाराएँ रही हैं। एक ओर सीता, सावित्री, दमयन्ती, अनुसूया आदि की पतिव्रता-संस्कृति है, जो आदर्श रूप में चित्रित होती है; दूसरी ओर विविध लौकिक ग्रन्थों में स्त्री के चित्त की चपलता, विविधगामिता, कामनात्मकता की चर्चा मिलती है। यह श्लोक उत्तरवर्ती धारामार्ग में आता है, और लौकिक व्यवहार का कठोर चित्र प्रस्तुत करता है।
यह भी विचारणीय है कि 'न स्त्रीणामेकतो रतिः' — यह वाक्य केवल यौन या प्रेमसंबन्धों तक सीमित नहीं है, अपितु व्यापक मानसिक रुझानों का प्रतीक भी हो सकता है। यह उपभोग की प्रवृत्ति, आकर्षण की अस्थिरता, तथा समर्पण की दुर्बलता को सूचित करता है। यह मनोवैज्ञानिक व्याख्या केवल स्त्रियों तक सीमित नहीं, अपितु आज के उपभोक्तावादी समाज की प्रवृत्तियों पर भी सटीक रूप से लागू हो सकती है।
परम्परागत शास्त्रीय साहित्य में स्त्री के विषय में ऐसे कठोर वचनों की बहुलता है, किन्तु उनके पीछे मात्र स्त्रीद्वेष निहित नहीं होता — बल्कि वे किसी विशेष काल, समाज, अथवा वर्ग के अनुभवों की अभिव्यक्ति होते हैं। यह श्लोक यदि कटु भी प्रतीत हो, तथापि उसकी अन्तर्भूत दृष्टि — चित्त की स्थायित्वहीनता — मनुष्यता के गूढ़ सत्य से सम्बद्ध है।