स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः ।
नारीपीनपयोधरोरुयुगला स्वप्नेऽपि नालिंगितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ॥ ॥१६-०१॥
मानव जीवन के व्यर्थत्व का यह बिंब उस चरम आत्मग्लानि का उद्घोष है जहाँ साधक अपनी सम्पूर्ण यात्रा पर एक दारुण दृष्टिपात करता है। यह वाक्य केवल विनोद या आत्मधिक्कार नहीं, प्रत्युत गम्भीर दर्शन है—उस जीवन का, जो न तो मोक्ष की ओर प्रवृत्त हुआ, न धर्म के अनुशासन में रमा, और न ही सांसारिक सुखों का उपभोग कर सका। यहाँ तीन प्रत्यक्ष विमर्श एक साथ घटित होते हैं—मोक्ष (संसारविच्छित्ति), धर्म (स्वर्गप्राप्ति), और काम (नारी का आलिंगन)। इन तीनों को अस्वीकार कर अंततः वाणी कहती है कि हम तो केवल मातृयोनि के यौवन-वन को काटनेवाले 'कुठारा' (कुल्हाड़ी) ही बनकर रह गए। यह स्वयं की निरर्थकता का एक नग्न आत्मस्वीकार है।
साधारणतया मनुष्य का जीवन इन तीन लक्ष्यों के इर्द-गिर्द ही घूमता है—मोक्ष, धर्म, और काम। किंतु यदि ये तीनों ही न सधें, तो शेष क्या रह जाता है? केवल एक जैविक उपकरण होना, केवल एक माध्यम बन जाना जिससे कोई अन्य जीवन जन्मे—यह स्थिति ही 'कुठारा' की संज्ञा प्राप्त करती है। 'कुठारा' मात्र उपकरण है—स्वयं का कोई उद्देश्य नहीं, कोई लक्ष्य नहीं, कोई स्वायत्तता नहीं।
यहाँ एक और सांकेतिक व्यंग्य दृष्टव्य है। 'नारीपीनपयोधरोरुयुगला'—यहाँ नारी का शारीरिक सौंदर्य एक प्रतीक बनता है भोग के अनुभव का। वह भी स्वप्न में भी नहीं मिला। न धर्म, न मोक्ष, न भोग—इन त्रिविध पुरुषार्थों का पूर्ण अभाव। यही तो पूर्ण व्यर्थता की स्थिति है, जहाँ जीवन न इस लोक में सार्थक बन पाया, न परलोक में, न आत्मोपलब्धि में, न भौतिक सुख में।
किन्तु यह आत्मग्लानि, यह क्षोभ, यह शोक—यही सम्भवत: नवजागरण की भूमि भी हो सकती है। जब आत्मा पूर्णतः स्वीकार कर लेती है कि उसने कुछ नहीं किया, तब ही सम्भवतः वह प्रथम बार कुछ करने के लिए तैयार होती है। जैसे शून्यता में ही नवनिर्माण की चेष्टा जन्म लेती है, वैसे ही इस 'कुठारा'-बोध से भी कोई तपस्वी उठ खड़ा हो सकता है, जो अग्नि से आत्मा को ढाल सके।