श्लोक १५-२०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
त्यज दुर्जनसंसर्गं भज साधुसमागमम् ।
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यतः ॥ ॥१५-२०॥
दुष्टजनों का संग छोड़ो, सत्पुरुषों का संग ग्रहण करो। दिन-रात पुण्यकर्म करते रहो, और सदा इस नश्वरता को स्मरण करो।

संबन्धों, संगतियों और कर्मों के प्रति सजगता ही आत्मिक अनुशासन का मूलभूत तत्त्व है। मानवस्वभाव बाह्यजगत् की संगति से अत्यधिक प्रभावित होता है — यह संगति चाहे विचारों की हो, व्यवहारों की हो, या भावनात्मक प्रवृत्तियों की। जिस प्रकार अग्निसंयुक्त काष्ठ स्वयं दग्ध हो जाता है, उसी प्रकार दुर्जनों का संग निष्कलुष मन को भी कलुषित कर देता है। यह आह्वान किसी बाह्यदृष्टि से 'दूसरों' को त्यागने की दृष्टि से नहीं है, अपितु एक आत्मसंयमी सजगता की ओर इंगित करता है — वहाँ जहाँ मनुष्य अपने अन्तःकरण की दिशा को पहचान सके और उसे सच्चिदानन्दमयी संगति की ओर प्रवृत्त कर सके।

‘साधुसमागम’ केवल सज्जन व्यक्तियों की संगति का प्रतिनिधान नहीं, बल्कि उन वृत्तियों की भी संगति है जो निर्मलता, विवेक, करुणा और आत्मस्वरूप की पहचान की ओर ले जाती हैं। ऐसा संग सहज ही न केवल मन को समाहित करता है, बल्कि जीवन के प्रत्येक स्तर पर प्रकाश प्रदान करता है — विचार में, कृति में, और अन्ततः आत्मानुभूति में।

‘पुण्यम् कुरु’ — इस आदेश में केवल कर्मकाण्डीय पुण्यकर्मों की अपेक्षा नहीं है, अपितु यह जीवन की समग्र नैतिक-सांस्कृतिक व्याप्ति को आवृत्त करता है। प्रतिदिन, प्रतिपल, जीवन का हर कार्य — वचन, विचार, व्यवहार — यदि जागरूकता और विवेक से प्रेरित हो, तो वह पुण्यरूप ही होता है। न केवल दान और तप, अपितु किसी अश्रुपूरित नयन को सहसा समझ लेना भी पुण्य है। किसी को दुख न देना, किसी के अभिमान को न तोड़ना, और सत्य को न विकृत करना — ये सब उस पुण्य के रूप हैं जो दिन-रात करने योग्य हैं।

और अन्तिम पंक्ति — ‘स्मर नित्यमनित्यतः’ — समस्त शिक्षाओं का सारगर्भित संकेत देती है। नश्वरता का स्मरण कोई निराशावादी भाव नहीं, अपितु यह एक जागरण है — यह स्मृति यह नहीं कहती कि सब व्यर्थ है, बल्कि यह चेतना उत्पन्न करती है कि जो शेष है, वह अत्यन्त मूल्यवान है। मृत्यु का बोध जीवन को अनमोल बनाता है। यही बोध मानव को औचित्य की ओर ले जाता है — समय के क्षरण में ही समय का आदर संभव होता है।

इस प्रकार, यह समस्त निर्देश केवल आचारशास्त्रीय आदेश नहीं हैं — ये आत्मानुशासन की, जागरूक जीवन की, और अन्ततः आत्मान्वेषण की ओर प्रवेशद्वार हैं। यह मनुष्य के लिए अपने अन्तरतम में एक साधक के रूप में प्रतिष्ठित होने की चुनौती है — त्याग के साथ विवेक, संगति के साथ साधना, कर्म के साथ करुणा, और स्मृति के साथ आत्मदर्शन।