प्रशंसा की पात्रता सदैव सामाजिक और सांस्कृतिक मानदंडों की कसौटी पर कसी जाती है। बाह्य पराक्रमों और दृश्य उपलब्धियों को स्मृति में स्थान प्राप्त होता है, जबकि आन्तरिक धारणाएं, भले ही वे अधिक स्थायी और मौलिक हों, अनदेखी रह जाती हैं। यह भेद मानवीय बोध की सीमाओं को प्रकट करता है, जो दृश्य को प्राथमिकता देता है और सूक्ष्म को उपेक्षा।
जिस प्रकार कोई पर्वत बाललीला की भाँति उठाया गया और उसी कारण उसकी ख्याति अमर हो गई, वैसे ही जीवन में अनेक ऐसे कर्म होते हैं, जो स्वयं नगण्य प्रतीत होते हैं, पर समाज उन्हें गौरव से विभूषित करता है। दूसरी ओर, एक स्त्री का यह कथन — कि उसने स्वयं सम्पूर्ण त्रैलोक्यधारी को अपने स्तनमण्डल पर धारण किया, किंतु उसकी गणना न की गई — स्त्री की भूमिका और योगदान के निरादरण का प्रतिपादन करता है। यह केवल दैवी प्रेम का चित्रण नहीं, अपितु सामाजिक विसंगतियों की ओर भी संकेत करता है, जहाँ दृश्य और लीलात्मक पुरुषकर्म की प्रतिष्ठा है, पर नारी का मौन धारण, उसका मूलभूत पोषण, अलक्षित रह जाता है।
यह अनुभव के प्रतिरोध और प्रशंसा के वितरण में अन्तर्निहित अन्याय की व्याख्या है। प्रश्न यह नहीं कि कौन अधिक धारण करता है, प्रश्न यह है कि कौन अधिक गाया जाता है। यश का यह असमान वितरण ही मूल विमर्श है। आत्मकथ्य के रूप में नारीकंठ से यह उद्घोष — 'मैं तुझे सदैव वहन करती हूँ, फिर भी मेरी गणना नहीं' — एक आन्तरिक आक्रोश है, जो सामाजिक स्मृति में अपनी उपस्थिति माँगता है।
अन्ततः यह विचार प्रस्तुत करता है कि पुण्यकर्म, चाहे वे दृश्य हों या अदृश्य, यश के बीज हैं। किन्तु यश की प्राप्ति केवल कर्म के महत्त्व पर निर्भर नहीं, अपितु समाज की यथास्थितियों पर भी। यथार्थ यह है कि स्मृति में स्थान उन्हीं को प्राप्त होता है, जिन्हें सामाजिक प्रवृत्तियाँ प्रतिष्ठा देती हैं — और वहाँ मौन त्याग, स्त्रीधारण, तथा जीवनदायिनी भूमिकाएँ अकसर अतीत के अंधकार में खो जाती हैं।