श्लोक १५-१८

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पतिर्न जहाति लीला-मन्यत्रार्पितमप्युग्तनिजहाति चाक्षुः
क्षीणोऽपि न त्यजति शीलगुणान्कुलीनः ॥ ॥१५-१८॥
पति अपनी प्रियतमा के साथ किया गया क्रीड़ा-संबंध नहीं छोड़ता, यद्यपि वह अन्यत्र आसक्त हो गया हो; जैसे कि नेत्र किसी दृश्य में लग जाने पर भी अपना स्वाभाविक कार्य नहीं छोड़ता। इसी प्रकार, कुलीन पुरुष निर्धन होने पर भी अपने शील और गुणों का त्याग नहीं करता।

यह विचार मानवीय स्वभाव, संस्कार, और चारित्रिक दृढ़ता की सूक्ष्म परख प्रस्तुत करता है। यहाँ तीन समांतर उपमाएं एक ही मूल तथ्य की ओर संकेत करती हैं — कि स्वाभाविक वृत्तियाँ, यदि गहरी हों, तो वे परिस्थितियों से डिगती नहीं। पति, नेत्र, और कुलीन पुरुष — तीनों में यह तथ्य परखा जाता है।

प्रथम छवि — एक पुरुष जो अपनी पत्नी के साथ लीला करता है, भले ही कहीं और आसक्ति रखता हो, वह उस प्रिय सम्बन्ध को पूरी तरह नहीं छोड़ता। यह मनुष्य की भावनात्मक जटिलता को उजागर करता है: एक ओर मोह, दूसरी ओर लज्जा, परम्परा या अन्तःकरण की स्मृति। यह केवल शारीरिक संबंध नहीं, अपितु स्मृतियों की गूढ़ परतों का संकेत है। यह वृत्ति व्यक्ति की भावनात्मक प्रतिध्वनि और मानवहृदय की चिरस्थायी छायाओं का रूप है।

दूसरी छवि नेत्र की है। नेत्र, किसी एक दृश्य में लगकर भी, अपनी मूल क्रियाशीलता – दृष्टिदान – को नहीं त्यागते। यह उपमा अत्यन्त सूक्ष्म और मर्मस्पर्शी है। मनःसंयोग किसी वस्तु से हो, परन्तु इन्द्रिय का धर्म उसका विधान निर्धारित करता है। यही सिद्धान्त मानव आचरण के लिए भी है – बाह्य बन्धनों से इन्द्रियों की स्वाभाविकता नहीं मिटती।

तीसरी और अन्तिम उपमा – कुलीन व्यक्ति की। कुलीनता केवल रक्त से नहीं, शील और गुण से प्रकट होती है। निर्धनता उस आन्तरिक भव्यता को नष्ट नहीं करती जो सुसंस्कारित हो। कुलीन व्यक्ति, जैसे कि शील और गुण का भण्डार हो, वह अपने आचरण में समता और मर्यादा बनाए रखता है – भले ही वह विपत्तियों से घिरा हो। यह दृष्टान्त सामाजिक परतों और अर्थ-आधारित प्रतिष्ठा की आलोचना करते हुए, चारित्रिक दृढ़ता को श्रेय देता है।

तीनों उपमाएं अन्ततः एक ही सत्य को दर्शाती हैं – कि आन्तरिक प्रवृत्तियाँ, यदि वे स्वभावरूपेण गहन हों, तो न अवसर, न आपत्ति, न आकर्षण उन्हें बदल सकते हैं। यह शिक्षण केवल नैतिक नीतिशास्त्र का नहीं, प्रत्युत मानव-मनोविज्ञान का गूढ़ कथन है। आचार, स्वभाव, वासना, दृष्टि, और संस्कृति – ये सभी तभी स्थायी होते हैं जब वे केवल सामाजिक बन्धन नहीं, अन्तःकरण की जड़ें हों। और यदि वे सचमुच वहाँ हैं, तो वे संकट में चमकते हैं, वियोग में मुखर होते हैं, और विपत्ति में परीक्षा देते हैं।