श्लोक १५-१७

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
बन्धनानि खलु सन्ति बहूनि प्रेमरज्जुकृतबन्धनमन्यत् ।
दारुभेदनिपुणोऽपि षडंघ्रि- र्निष्क्रियो भवति पंकजकोशेः ॥ ॥१५-१७॥
बंधन तो वास्तव में बहुत प्रकार के होते हैं, पर प्रेमरज्जु से बना बंधन कुछ और ही होता है। लकड़ी चीरने में कुशल हाथी भी कमल की कली में स्थिर हो जाता है।

मानवसम्बन्धों की जटिल संरचना में प्रेम की भूमिका जितनी गूढ़ है, उतनी ही अदृश्य और अपराजेय भी। जहाँ सामान्यतः बंधन वश में रखने के लिए कठोरता, शासन, या भौतिक नियंत्रण का सहारा लिया जाता है, वहीं प्रेम से उत्पन्न बंधन इन सबसे भिन्न और कहीं अधिक प्रभावकारी होते हैं। यह बंधन न तो लोहे की जंजीरों के समान होते हैं, न ही किसी दण्ड के भय से बँधते हैं—बल्कि ये हृदय की अदृश्य रज्जुओं से निर्मित होते हैं। इनका आकर्षण बाहर से नहीं, भीतर से होता है।

लकड़ी चीरने में निपुण जो हाथी, जो अपने गजबल से वृक्षों को चीर सकता है, वही जब किसी कमल की कोमल कली के पास आता है, तो निष्क्रिय हो जाता है। यह निष्क्रियता उसकी दुर्बलता नहीं, अपितु उस सूक्ष्मतम आकर्षण की स्वीकृति है, जो प्रेम के रूप में कमल से प्रसारित होता है। शक्ति का उपयोग तब तक ही सम्भव है, जब तक उसके सामने कोई समान या विरोधी शक्ति खड़ी हो; प्रेम उस शक्ति का नाम है, जो किसी प्रतिरोध के बिना ही बलवान को भी वश में कर सकती है।

प्रेम का यह रूप एक दार्शनिक प्रश्न भी उत्पन्न करता है—क्या वास्तव में प्रेम स्वतन्त्रता को बाधित करता है या उसकी परिभाषा को ही रूपान्तरित कर देता है? जब कोई प्रेम के कारण रुकता है, तो वह 'रुकना' क्या बन्धन है या चयन? इस प्रकार प्रेम-बंधन, यद्यपि किसी भी कानूनी या भौतिक बाध्यता से रहित होता है, फिर भी वह सबसे अधिक प्रभावी होता है क्योंकि वह व्यक्ति की भीतरी चेतना को सम्बोधित करता है।

प्रेम में स्वेच्छा से जुड़ना और स्वेच्छा से ठहर जाना, यह ही उसकी यथार्थ सत्ता है। इस प्रकार के बंधन को समझे बिना, सामाजिक या राजनैतिक सम्बन्धों की मूलभूत गतिशीलता को समझना कठिन होता है। यह श्लोक केवल प्रेम की कोमलता का नहीं, बल्कि उसकी अनुशासनात्मक क्षमता का भी उद्घाटन करता है—जहाँ कठोर कोमल के सामने नतमस्तक हो जाता है, और जहाँ बलहीन भी बली पर शासन करता है, बिना किसी आदेश या आज्ञा के।

इस अवधारणा में न केवल भावनात्मक क्षेत्र का विश्लेषण है, अपितु सत्ता, नियंत्रण और स्वेच्छा की भी पुनर्परिभाषा अन्तर्निहित है। यदि बंधन केवल भौतिक नियंत्रण नहीं, बल्कि प्रेमजन्य स्वीकृति से भी निर्मित हो सकते हैं, तो फिर नीतिशास्त्र और दर्शन में प्रेम की भूमिका को परिधि से केन्द्र तक ले जाना आवश्यक हो जाता है। प्रेम, तब केवल निजी सम्बन्धों की वस्तु नहीं, बल्कि व्यापक सामाजिक और नैतिक बुनावट की शक्ति भी हो जाती है।