दाबाल्याद्विप्रवर्यैः स्ववदनविवरे धार्यते वैरिणी मे ।
गेहं मे छेदयन्ति प्रतिदिवसमुमाकान्तपूजानिमित्तं
तस्मात्खिन्ना सदाहं द्विजकुलनिलयं नाथ युक्तं त्यजामि ॥ ॥१६॥
बाल्यावस्था की मूर्खता से, श्रेष्ठ ब्राह्मणों द्वारा, मेरी शत्रु स्त्री को अपने मुख में धारण किया जाता है।
मेरा घर तोड़ा जाता है प्रतिदिन, उमाकान्त (शिव) की पूजा के निमित्त।
इस कारण से मैं सदा खिन्न रहती हूँ, हे नाथ, ब्राह्मणों का यह निवास मैं उचिततः त्याग देती हूँ।
स्वयं के प्रिय, अपने गृह, और सम्मान को जब किसी बाह्य या तथाकथित पवित्र समूह की धार्मिकता, अंधश्रद्धा, अथवा हिंस्रअहंकार द्वारा लगातार अपमानित, क्षतिग्रस्त, और उपेक्षित किया जाता है—तब किसी भी विवेकशील व्यक्ति के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह उस परंपरा, स्थान, या व्यक्ति का त्याग करे, चाहे वह सामाजिक दृष्टि से कितना ही ‘पवित्र’ क्यों न माना गया हो।
जब पितृसत्ता के नाम पर पिता अपने क्रोध में पुत्र या पुत्रवधू पर अत्याचार करता है, जब ब्राह्मणत्व के नाम पर 'श्रेष्ठ' समझे जानेवाले ब्राह्मण स्त्रियों का अपमान करते हैं, और जब धर्म के नाम पर किसी स्त्री के घर को हर दिन किसी बाह्य पूजा-अनुष्ठान के लिए क्षति पहुँचाई जाती है—तब यह स्पष्ट हो जाता है कि ये संस्थाएँ केवल बाह्य प्रतिष्ठा के उपकरण बन गई हैं, जिनका आंतरिक नैतिक मूल्य शून्य हो चुका है।
सच्ची धार्मिकता किसी की गरिमा, स्वतंत्रता, और सुख के संरक्षण से विमुख नहीं हो सकती। जब कोई परंपरा, चाहे वह कितनी भी प्राचीन क्यों न हो, केवल एक वर्गविशेष को ही महत्त्व देती है और शेष की पीड़ा को उपेक्षित करती है, तब उसका बहिष्कार करना केवल नैतिक अधिकार नहीं, बल्कि दार्शनिक रूप से अनिवार्य उत्तरदायित्व बन जाता है।
‘त्याग’ यहाँ केवल शारीरिक परित्याग नहीं है, यह मानसिक विमुक्ति का भी प्रतीक है—एक ऐसी चेतना की उद्घोषणा, जो परंपरा से टकराने का साहस रखती है, केवल इसलिए नहीं कि वह विद्रोही है, बल्कि इसलिए कि वह विवेकपूर्ण और नैतिक रूप से संलग्न है। यह निर्णय केवल निजी असंतोष का परिणाम नहीं है, अपितु यह उस समग्र अन्यायपूर्ण व्यवस्था के प्रति तात्त्विक विरोध है, जो पितृसत्ता, वर्णाधारित अभिमान, और अंधश्रद्धा के सहारे जीवित है।
किसी भी व्यक्ति के जीवन में एक ऐसा क्षण आता है, जब वह निर्णय करता है कि वह और कितना सहन करेगा, और क्या वह उस व्यवस्था का अंग बना रहेगा जो उसके स्वत्व का निरंतर हनन कर रही है। यह प्रश्न केवल बाह्य अत्याचार का नहीं, आत्मसम्मान का है—क्योंकि अपमानित होकर भी चुप रह जाना आत्मस्वीकृत पराधीनता है।
इसलिये, जब कोई कहता है, ‘मैं यह निवास त्यागता हूँ,’ वह वस्तुतः कहता है, ‘मैं तुम्हारे अधर्म, तुम्हारी झूठी श्रेष्ठता, और तुम्हारी अपवित्र धार्मिकता को अस्वीकार करता हूँ।’ यही वह सत्य है, जो त्याग को मोक्ष के समकक्ष बना देता है।