कमलिनीमकरन्दमदालसः ।
विधिवशात्परदेशमुपागतः
कुटजपुष्परसं बहु मन्यते ॥ ॥१५॥
अनुकूलता में पलनेवाले प्राणी जब प्रतिकूलता में फेंके जाते हैं, तब उनका विवेक, स्वाद, और आदर्श—सब बदल जाते हैं। जैसे एक भौंरा जो कमल के रस में लीन होता है, यदि किसी कारणवश दूर के देश में पहुँच जाए, जहाँ केवल कुटज के फूल उपलब्ध हों, तो वह उसी को उत्तम मानने लगता है। यह मनुष्य की मानसिक वृत्ति को दर्शाता है—कि वह परिस्थितियों से निर्मित होता है, और उसकी पसंद-नापसंद भी तात्कालिकता की उपज है।
बुद्धिमत्ता का परीक्षण तभी होता है जब अनुकूलता नहीं रह जाती। आदर्श, मूल्यमान्यताएँ, और आत्मसंयम की सार्थकता केवल अनुकूल अवस्था में नहीं, बल्कि प्रतिकूल स्थितियों में टिके रह पाने की क्षमता से मापी जाती है। यदि कोई व्यक्ति केवल तब तक सच्चाई का पालन करता है जब तक उसे सुविधा हो, तो वह सच्चा नहीं, अवसरवादी है।
स्वाभिमान और स्वातंत्र्य का त्याग कर जब व्यक्ति केवल तात्कालिक लाभ या अस्तित्व रक्षा हेतु अपने मूल्यों से समझौता करता है, तब वह अपने उच्चतर स्वरूप को खो देता है। यह स्थिति उसी भौंरे की तरह है जो, परागरस का आस्वादन भूलकर, अब कुटजरस को ही स्वादिष्ठ मानने लगा है। यह मूल्यहीनता का संकेत है, और दीर्घकालीन दृष्टि से यह पतन की भूमिका होती है।
मानवजीवन में भी यही प्रवृत्ति स्पष्ट दिखाई देती है: जब लोग मूल्यों की बात केवल तब तक करते हैं जब तक वे सहज हों, पर कठिनाई आते ही सस्ते समझौते कर लेते हैं। यह ‘विधिवश’ की आड़ में होता है—जैसे भाग्य या परिस्थितियाँ उन्हें बाध्य कर रही हों। परंतु वास्तविक आत्मबल वह है जो परिस्थिति को नहीं, स्वयं को दृढ़ बनाता है।
विचारणीय यह है कि क्या कोई ऐसी अंतःशक्ति है जो व्यक्ति को बाह्यप्रतिकूलताओं के बावजूद अपने भीतर के सौंदर्य, अपनी मूल अभिरुचि, और अपने नैतिक प्रतिमानों के प्रति निष्ठावान रख सके? या क्या हर मूल्य बस एक अवसर है जो परिस्थितियों के बदलते ही मूल्यहीन हो जाता है?
मनुष्य के चरित्र का स्तर तभी मापा जा सकता है जब वह संघर्ष में हो। जो संकट में भी अपने मूल आदर्शों से च्युत नहीं होता, वही वास्तविक अर्थ में चरित्रवान कहलाने योग्य है।