अतृप्ताः प्राणिनः सर्वे याता यास्यन्ति यान्ति च ॥ १६-१३
इस श्लोक में जीवन के चार प्रमुख अभिलाषित विषयों — धन, जीवनोपयोगी वस्तुएं, स्त्रियाँ एवं भोजन संबंधी कर्म — का उल्लेख है, जिनमें प्राणियों की अतृप्ति (असंतोष) को दर्शाया गया है। ये विषय मनुष्य और अन्य जीवों के कर्मकांडों एवं इच्छाओं का मूल आधार हैं। 'धन' यहाँ केवल भौतिक संपत्ति नहीं, बल्कि जीवन के लिए आवश्यक संसाधनों का प्रतिनिधित्व करता है। 'जीवितव्येषु' शब्द से जीवनोपयोगी वस्तुएं या साधन अभिप्रेत हैं जो जीवित रहने हेतु आवश्यक हैं। 'स्त्रीषु' से न केवल स्त्रियों का दैहिक रूप, अपितु स्नेह, अनुराग और सामाजिक सम्बन्धों का संकेत भी है। 'आहारकर्मसु' में भोजन ग्रहण तथा उससे जुड़ी क्रियाएँ जैसे कृषि, पशुपालन, व्यंजन निर्माण आदि सम्मिलित हैं।
इन चारों में प्राणियों की अतृप्ति का भाव कर्मों के चक्र के अंतःप्रवेश को सूचित करता है, जो जन्म-मरण के चक्र (संसार) में फंसाए रखता है। अतृप्ति का अर्थ है कि ये वस्तुएं कभी पूर्णता नहीं दे पातीं; इसी असंतोष से जीव प्रायः पुनः पुनः इन्हीं विषयों की प्राप्ति हेतु कर्म करता है। 'याता यास्यन्ति यान्ति च' से इस असंतोषपूर्ण प्रवृत्ति की निरंतर गति प्रदर्शित होती है, जहाँ प्राणी यह सोचकर इन विषयों की प्राप्ति में प्रवृत्त होता है कि इससे पूर्णता आएगी, किन्तु पुनः असंतोष के कारण छोड़कर फिर अन्य ओर मुड़ जाता है। इस प्रकार, जीवन का यह चक्र अनवरत चलता रहता है।
दार्शनिक दृष्टि से, यह असंतोष तथा संलग्नता ही कर्मसंसार के कारण हैं, जो प्राणियों को जन्म, मृत्यु, पुनर्जन्म के चक्र में बाँधते हैं। अतः, जीवन में सच्ची शांति, संतोष और मोक्ष के लिए इन विषयों के प्रति आसक्ति का त्याग आवश्यक है। परंतु इस श्लोक में केवल उस चक्र की स्थिति का सूक्ष्म विवेचन है, जिसमें जीव बिना संतोष के बारंबार विषयों का पीछा करता है।
रूपक और युक्तिप्रयुक्ति के आधार पर, यह श्लोक जीवन की अनित्य, असंतोषजनक प्रवृत्तियों को उद्घाटित करता है, जो तात्कालिक सुखों में पूर्णता की भावना न होने के कारण सतत कर्म एवं प्रयास की ओर ले जाती हैं। इसका चिंतन मनुष्य को अपने आसक्तिपरक जीवन के परिमार्जन की ओर प्रेरित करता है।