श्लोक १६-१२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पठन्ति चतुरो वेदान्धर्मशास्त्राण्यनेकशः ।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा ॥ १५-१२॥
बहुशः बुद्धिमान व्यक्ति वेदानुसारकान्येव धर्मशास्त्राणि अध्ययन करते हैं, परन्तु अपनी आत्मा का सही ज्ञान नहीं रखते, जैसे खरगोश अपनी पूँछ का स्वाद नहीं जानता।

यह श्लोक ज्ञान और आत्म-बोध के बीच एक महत्वपूर्ण अंतर को उद्घाटित करता है। यहाँ 'चतुरः' (बुद्धिमान, विद्वान) से अभिप्राय वे व्यक्ति हैं जो वेदों के अंग और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करते हैं, अर्थात् वे अनेक धार्मिक, नैतिक और दार्शनिक ग्रन्थों का ज्ञान अर्जित करते हैं। वेदाः केवल आध्यात्मिक और सांस्कृतिक ज्ञान के स्रोत नहीं, अपितु जीवन के आचार, धर्म, और नियमों का संकलन हैं। तथापि, यहाँ यह उद्घाटित है कि केवल अध्ययन और बाह्य ज्ञान प्राप्ति आत्म-स्वरूप की सूक्ष्मतम अनुभूति और समझ को सुनिश्चित नहीं करती।

"आत्मानं नैव जानन्ति" का तात्पर्य है कि इस प्रकार के विद्वान अपनी आत्मा की वास्तविक प्रकृति, उसकी चेतना, स्वरूप, और उससे संबंधित गूढ़ तत्वों को नहीं समझते। आत्मा का ज्ञान न केवल शास्त्रों के ज्ञान से, अपितु अंतर्ज्ञान और अनुभवजन्य आत्म-दर्शन से संभव होता है। आत्म-बोध के बिना, धार्मिक ग्रंथों का अध्ययन केवल तात्कालिक और बाह्य ज्ञान तक सीमित रह जाता है।

उपमा में "दर्वी पाकरसं यथा" (खरगोश अपनी पूँछ का स्वाद नहीं जानता) सूचित करता है कि आत्मा की अनिवार्य और नित्यसंगत उपस्थिति को स्वयं उसका स्वामी भी नहीं जान पाता, ठीक वैसे ही जैसे खरगोश अपनी पूँछ का स्वाद न जानना स्वाभाविक है, क्योंकि वह उसे सदैव देख या अनुभव नहीं करता। यह आत्म-ज्ञान की दुर्लभता और उसकी सहज उपलब्धता के अभाव को रेखांकित करता है।

इस विचार में गहन दार्शनिकता निहित है कि शास्त्रीय ज्ञान का अधिग्रहण केवल विद्या की एक परत है, जबकि आत्मा की गूढ़ता, उसके रहस्यों का ज्ञान एक अन्तर्मुखी साधना, आत्म-निरीक्षण और आध्यात्मिक अभ्यास के बिना नहीं हो सकता। यह श्लोक वैदिक परम्परा में आत्म-स्वरूप की पहचान और ज्ञान की महत्ता को दर्शाता है, जहाँ ज्ञान के दो स्तर माने जाते हैं: बाह्य (वेदान्त, धर्मशास्त्र) और अन्तः (आत्मज्ञान)।

इस प्रकार, मनुष्य का केवल बहुविध शास्त्राध्ययन आत्मा के स्वरूप की पहचान के बिना अपूर्ण रहता है। आत्मा के ज्ञान की अनुपस्थिति में, ज्ञानी की बुद्धि भी अधूरी है, जो जीवन के वास्तविक उद्देश्य की प्राप्ति में बाधक है। यह भेद आत्मा के अस्तित्व, चेतना, तथा मोक्ष-साधना के विवेचन में गहनता प्रदान करता है।

दार्शनिक दृष्टिकोण से आत्म-ज्ञान का अभाव, भले ही बहुविध ज्ञान का साक्षात्कार हो, माया के भ्रम और आत्म-परिचयहीनता के कारण जीवन में अज्ञान और दुःख का कारण बनता है। अतः आत्म-ज्ञान की महत्ता श्लोक में सूचित है, जो विवेक और आत्म-दर्शन के बिना अपूर्ण रहती है। यह श्लोक तत्त्वज्ञान, आत्मा-चेतना, और मोक्ष-साधना के संदर्भ में गूढ़ चिन्तन के लिए प्रवृत्त करता है।