शत्रूणां प्रणिपातेन ते ह्यर्था मा भवन्तु मे ॥ ॥११॥
यहाँ एक ऐसी नीति का उद्घाटन होता है जो केवल आर्थिक या सामाजिक यश की प्राप्ति को ही मान्य नहीं मानती, अपितु उसके साधनों की शुद्धता को भी समानाधिकृत स्थान देती है। एक ऐसी धारणा प्रतिपादित है जहाँ उद्देश्य की सिद्धि उस मार्ग की न्यायसंगतता और आत्मगौरव की शुचिता से मापी जाती है। यह एक प्रकार से 'नीतिवान अर्जन' और 'सत्त्वगुणयुक्त उपभोग' का आदर्श प्रतिरूप है।
‘अतिक्लेशेन यद्द्रव्यम्’ — वह सम्पत्ति जो अत्यधिक शारीरिक, मानसिक या आत्मिक कष्ट के माध्यम से प्राप्त हो; इसका तात्पर्य यह नहीं कि परिश्रम न किया जाय, अपितु यह कि यदि वह श्रम व्यक्ति की अस्मिता, मूल्यों या शील की हानि पर आधारित हो, तो वह अस्वीकार्य है। यह विचार श्रम और आत्मनिन्दा के बीच के सूक्ष्म अंतर को इंगित करता है। एक श्रमिक शरीर थका सकता है, पर आत्मसम्मान नहीं गिराता; किन्तु कोई भी कार्य जो मनुष्य को अपने ही अन्तःकरण में हीन बना दे, वह अत्याचार के समकक्ष है।
‘अतिलोभेन यत्सुखम्’ — अत्यधिक लोभ से उत्पन्न सुख का परित्याग यहाँ विवेकशीलता की चरम सीमा को दर्शाता है। लोभ न केवल तृष्णा को पोषित करता है, बल्कि वह मूल्यहीनता की ओर ले जाता है। ऐसा सुख जो अन्य के प्रति अन्याय, छल या अनाधिकार से उपजता है, वास्तव में आत्मा पर भार बन जाता है। मनःशान्ति उस सुख की परीक्षा की कसौटी है; यदि सुख के साथ अपराधबोध, भय या अधैर्य सम्मिलित हों, तो वह सुख न होकर बन्धन बन जाता है।
‘शत्रूणां प्रणिपातेन’ — शत्रुओं के समर्पण या उनकी अधीनता से प्राप्त लाभ का त्याग — यह दृष्टिकोण केवल युद्धनीति के सन्दर्भ में नहीं, बल्कि समग्र सामाजिक व्यवहार में भी सन्निहित है। यदि किसी का आत्मबल, आक्रामकता या सामर्थ्य इस रूप में प्रकट होता है कि वह अपने विरोधियों को दबा दे और उनसे लाभ ले, तो वह व्यवहार दीर्घकालिक दृष्टि से असह्य विष की तरह होता है। किसी भी प्रकार का अधिपत्य, जिसमें मानवीय गरिमा का दमन हो, अन्ततः आत्मा को ही विखण्डित करता है।
यहाँ एक विरक्त किन्तु सशक्त आदर्श स्थापित होता है — ऐसा जीवन जिसमें भौतिक सफलता या सुख की तुलना में आत्मसमर्पण, शील, और सत्त्व की प्रतिष्ठा अधिक मूल्यवान हो। यह दृष्टिकोण सम्यक् दृष्टि की परीक्षा की तरह है: यदि किसी वस्तु का मूल्य उसकी उपलब्धि की पद्धति पर निर्भर करता है, तो वह मूल्य आत्मा से अधिक नहीं हो सकता। एक ऋषिसुलभ जीवनवृत्ति, जिसमें आत्मा की स्वतन्त्रता धन की सम्पन्नता से कहीं अधिक मानी जाती है।
यह दृष्टिकोण केवल एक व्यक्तिगत नीतिवचन नहीं, अपितु सामाजिक और नैतिक विमर्श का मूल भी हो सकता है — यदि समाज में कोई व्यक्ति, संस्था या राष्ट्र केवल बाह्य साधनों की उपलब्धि को ही लक्ष्य बनाए, और उसके साधनों की निर्मलता पर ध्यान न दे, तो वह अन्ततः अनैतिकता, अस्थिरता और आत्मविनाश की ओर उन्मुख होगा। इसी कारण, यद्यपि यह वाक्य कदाचित् 'त्याग' जैसा प्रतीत होता है, वस्तुतः यह आत्मस्वराज्य, विवेक और शुद्ध संकल्प की घोषणा है।