प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद्विनश्यति ॥ ॥१५-०६॥
धन की प्राप्ति का स्रोत अत्यंत महत्वपूर्ण होता है क्योंकि अन्यायपूर्वक प्राप्त धन अस्थायी और अस्थिर होता है। यह दश वर्षों तक संभवतः टिक सकता है, लेकिन दीर्घकालिक स्थिरता तथा स्थायित्व की संभावना नहीं रखता। अन्याय से अर्जित धन केवल संचित वस्तु नहीं, बल्कि नैतिक और सामाजिक अस्थिरता का कारण भी बनता है, जो अंततः उसे नष्ट कर देता है।
जब धन अन्याय के माध्यम से प्राप्त होता है, तो उसमें आचारिक दोष और संस्कृतिक भ्रष्टता निहित होती है, जो उसके स्वभाव को अस्थिर बनाती है। इस प्रकार के धन का टिकाऊ होना स्वाभाविक रूप से असंभव है, क्योंकि इसे अर्जित करने में पाप, अनुचितता या समाज के नियमों का उल्लंघन निहित रहता है। इसीलिए, इसका विनाश निश्चित है और वह दीर्घकाल तक स्थिर नहीं रह पाता।
दश वर्षों की अवधि दर्शाती है कि समय के साथ-साथ यह धन धीरे-धीरे क्षय होता है, समाज में इसका लाभ नहीं होता, और अंततः ग्यारहवें वर्ष में यह समूल समाप्त हो जाता है। यह मानवीय जीवन के आर्थिक चक्र, कर्मफल और सामाजिक न्याय के सिद्धांत से मेल खाता है। धन के टिकाऊपन का आधार नैतिकता और धर्म है, जो अन्याय को अस्वीकार करता है।
यह अवधारणा उन मूल्यों को रेखांकित करती है जो सामाजिक और आर्थिक व्यवहार के लिए आवश्यक हैं। धन केवल वह नहीं जो जमा किया जाए, बल्कि वह जो धर्म और न्याय के अनुसार अर्जित और प्रयोग किया जाए। अन्यथा, धन धनात्मक परिणाम नहीं, बल्कि नाश, संकट और अस्थिरता का कारण बनता है।
इसलिए, धन की प्राप्ति के स्रोत और उसके स्वभाव का अध्ययन न केवल व्यक्तिगत समृद्धि के लिए बल्कि सामाजिक स्थिरता, नैतिकता और न्याय के लिए अनिवार्य है। अन्याय से अर्जित धन अस्थायी और अंततः नष्ट हो जाने वाला है, जबकि न्याय और धर्म के अनुसार अर्जित धन स्थायी और फलदायी होता है।