उपानन्मुखभङ्गो वा दूरतो वा विसर्जनम् ॥१५-०३॥
कष्ट और दुर्भावनापूर्ण तत्वों के प्रति दो ही संभव प्रतिक्रियाएँ होती हैं, जो जीवन के संघर्ष और सामाजिक संबंधों के विवेकपूर्ण प्रबंधन का आधार बनती हैं। यह द्वैत व्यवहार मनुष्य को यह समझने में सहायता करता है कि हर असामंजस्य या विरोध को उसी प्रकार से नहीं सुलझाना चाहिए।
पहली प्रतिक्रिया में प्रत्यक्ष संघर्ष शामिल होता है, जहाँ असहज या हानिकारक वस्तु से सामना करते हुए उसे नजदीक से तोड़ना या समाप्त करना आवश्यक समझा जाता है। यह दृष्टिकोण साहस, संघर्षशीलता और समस्या के मूल को हटाने की तीव्र इच्छा को दर्शाता है। जब कोई दुर्जन या समस्या स्पष्ट रूप से नज़र आती है और उसका प्रभाव प्रत्यक्ष होता है, तब नजदीक आकर उसका निषेध या समाधान करना बुद्धिमत्ता मानी जाती है।
दूसरी प्रतिक्रिया, दूरी बनाकर त्यागने की है, जहाँ व्यक्ति या समाज समस्या के स्रोत से दूरी बनाए रखते हैं, बिना सीधे टकराव के। यह समझदारी और विवेक का परिचायक है, जो बताता है कि कभी-कभी निकटता में रहकर समस्याओं का सामना करना अधिक हानिकारक होता है, अतः दूरी बनाए रखना ही सर्वश्रेष्ठ समाधान होता है। विशेषकर तब जब प्रत्यक्ष टकराव से हानि अधिक हो, या स्थिति सुधारने की संभावनाएं न्यून हों।
यह द्विविधा प्रतिक्रिया जीवन में निर्णय लेने के उन क्षणों को प्रतिबिंबित करती है जहाँ समझदारी से समस्या का स्वरूप परखा जाता है। किसी भी असहज तत्व के प्रति प्रतिक्रिया में भावनात्मक आवेग से बचना आवश्यक है, और बुद्धि के आधार पर तय करना चाहिए कि प्रत्यक्ष टकराव उपयुक्त है या शांति से दूरी बनाना।
इसे सामाजिक और राजनैतिक संदर्भों में भी समझा जा सकता है—जहाँ कभी-कभी शत्रुता का सामना करके उसे नष्ट करना आवश्यक होता है, और कभी-कभी दूर रहकर उसका प्रभाव खत्म करना। इस विचारधारा में निर्णय की स्वतंत्रता, परिस्थिति की गंभीरता और लक्ष्य की स्पष्टता का समन्वय होता है।
सतत प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि किस स्थिति में प्रत्यक्ष संघर्ष श्रेष्ठ है और कब दूरी बनाकर त्याग करना? क्या यह व्यक्तिगत विवेक, परिस्थिति की जटिलता, या समय की चाल पर निर्भर करता है? क्या कभी दूरी बनाना स्वाभाविक साहस नहीं बल्कि निष्क्रियता की निशानी हो सकती है? ऐसे प्रश्न जीवन को गहनता से देखने और निर्णय को संतुलित बनाने की प्रेरणा देते हैं।