पृथिव्यां नास्ति तद्द्रव्यं यद्दत्त्वा सोऽनृणी भवेत् ॥ ॥१५-०२॥
शिक्षा का महत्व इतना गहरा है कि उसका अभाव व्यक्ति को सम्पूर्ण रूप से निर्धन बना देता है। केवल बाह्य वस्तुओं या धन-संपदा के मिलने से कोई व्यक्ति सम्पूर्ण नहीं हो सकता; असली समृद्धि वह है जो ज्ञान से प्राप्त होती है। जब कोई गुरु अपने शिष्य को एक भी अक्षर नहीं पढ़ा पाता, अर्थात् उसे ज्ञान से अभावग्रस्त छोड़ देता है, तो उसकी दी गई कोई भी भौतिक वस्तु उसकी निर्धनता को छुपाने में असमर्थ होती है।
गुरु का कर्तव्य केवल ज्ञान का संवाहक होना है, जो शिष्य के मन और चेतना को जागृत करता है। यदि यह कार्य पूरा न हो, तो शिक्षा और गुरु दोनों का अस्तित्व ही प्रश्नवाचक हो जाता है। भौतिक वस्तुओं की महत्ता सीमित होती है; वे नित्य परिवर्तनशील और क्षणिक हैं। लेकिन ज्ञान की संपदा स्थायी, सशक्त और जीवनपरिवर्तक होती है।
यहाँ 'एकमप्यक्षरं' शब्द का प्रयोग शिक्षा की सूक्ष्मता और उसके आधारभूत तत्व की ओर संकेत करता है। केवल एक अक्षर का ज्ञान भी यदि प्रभावशाली और जागरूकता देने वाला हो तो वह सम्पूर्ण धन-संपदा से अधिक मूल्यवान होता है। शिक्षा के अभाव में जो भी वस्तुएँ दी जाएँ, वे असहाय और अधूरी सहायता के समान हैं।
पृथ्वी पर जो भी वस्तुएँ उपलब्ध हैं, उनका मूल्य तभी अर्थपूर्ण होता है जब वे ज्ञान के साथ समन्वित हों। अज्ञानता की अंधकार में धन-संपदा, सम्पत्ति या पद-प्रतिष्ठा किसी भी प्रकार की रक्षा नहीं कर पाती। शिष्य को प्रकाश देने का काम गुरु का सर्वोच्च दायित्व है, जिससे जीवन के तमाम पक्ष उज्ज्वल और सुगठित होते हैं।
यह सोचनीय है कि शिक्षा की महत्ता को समझे बिना भौतिक वस्तुओं के वितरण से क्या लाभ? क्या वह धन या वस्तु बिना ज्ञान के जीवन को श्रेष्ठ बना सकती है? यह प्रश्न शिक्षा की अनिवार्य भूमिका को और स्पष्ट करता है कि शिक्षा वह अमूल्य धरोहर है, जिसके बिना किसी भी सामाजिक या व्यक्तिगत सम्पदा का कोई वास्तविक मूल्य नहीं होता।
इस सन्दर्भ में गुरु और शिक्षा के बीच का संबंध अनिवार्य हो जाता है; गुरु वह दीपक है जो अज्ञानता के अंधकार को मिटाकर शिष्य को स्वाधीन और समर्थ बनाता है। जब तक यह प्रकाश नहीं फैलता, तब तक सम्पत्ति केवल भौतिक भार बनकर रह जाती है।