तस्य ज्ञानेन मोक्षेण किं जटाभस्मलेपनैः ॥ ॥१५-१॥
मनुष्य का चित्त यदि समस्त जीवों के प्रति कृपा और दया से द्रवित हो गया हो, तो उस दया-पूर्ण हृदय की उपस्थिति एक ऐसी स्थिति है जहाँ मानवीय सहानुभूति का सर्वोच्च स्तर प्राप्त हो चुका होता है। दया का भाव केवल सहानुभूति या करुणा तक सीमित नहीं रहता, बल्कि वह समस्त जीवों के साथ गहन संबंध और अहिंसा की अनुभूति को जन्म देता है। यह भाव मन को कठोरता, घृणा या हिंसा से मुक्त कर देता है, और एक कोमल, संवेदनशील एवं विस्तृत दायित्व-बोध से परिपूर्ण करता है।
इसके विपरीत, केवल ज्ञान और मोक्ष की प्राप्ति को बाहरी प्रतीकों या रूपकों से जोड़ना, जैसे जटाओं पर राख लगाना, व्यर्थ और निरर्थक है। ज्ञान और मोक्ष यदि हृदय में दया के भाव के बिना हों, तो वे केवल औपचारिकता या दिखावे की वस्तु मात्र रह जाते हैं। उनके द्वारा जीवन की गहन वास्तविकता या आत्म-परिवर्तन संभव नहीं होता।
यहाँ जटाभस्मलेपन की उपमा अत्यंत सारगर्भित है, जो सूचित करती है कि ज्ञान और मोक्ष, यदि हृदय में दया की गहराई न हो तो, ठीक वैसे ही निरर्थक हैं जैसे जटाओं में राख लगाना। जटा, जो बालों के उलझे गढ़े होते हैं, उनमें राख लगाना न केवल व्यर्थ है बल्कि असंगत भी। यह उपमा बताती है कि बाहरी ज्ञान या मोक्ष की स्थिति तभी सार्थक होती है जब वे आंतरिक हृदय की दयालुता और जीवों के प्रति करुणा के साथ जुड़ी हों।
इस दृष्टिकोण से स्पष्ट होता है कि ज्ञान का उद्देश्य केवल आध्यात्मिक मुक्तियों की प्राप्ति नहीं, बल्कि जीवन के समस्त प्राणियों के प्रति करुणा और संवेदना का विकास भी है। न केवल मनुष्य, बल्कि समस्त जीवों के प्रति दया का भाव, न केवल आचार और नीति का आधार है बल्कि आत्मज्ञान और मोक्ष की वास्तविक पूंजी भी है।
क्या वह ज्ञान सार्थक हो सकता है जो केवल एक सूखी विधि या औपचारिकता बन कर रह जाए? क्या मोक्ष वह हो सकता है जो हृदय की कठोरता को न तोड़े और जीवों के प्रति कृपा को उत्पन्न न करे? ये प्रश्न अंतःकरण के गहरे विमर्श की ओर अग्रसर करते हैं, जो दिखाते हैं कि आध्यात्मिक उन्नति का सार हृदय की दया से परिभाषित होता है।