तरन्त्यधोगताः सर्वे उपरिष्ठाः पतन्त्यधः ॥ १५-१३॥
समृद्धि और सफलता को अक्सर नाव के समान माना जाता है जो जीवन के समुद्र में यात्रा करती है। इस समुद्र में नाव यदि विपरीत दिशा में चलती है, अर्थात् अपने स्वाभाविक या उचित मार्ग के विपरीत, तो वह अस्थिर हो जाती है और अंततः पलट जाती है। इसका प्रतीकात्मक अर्थ यह है कि जब समृद्धि या धन गलत तरीके से प्राप्त या उपयोग किया जाता है, तो वह अंततः विनाश का कारण बनता है।
पक्षी जैसे कोमल और संवेदनशील वस्तु का ‘द्विजमयी नौका’ से तुलना यह दर्शाती है कि समृद्धि यदि विवेकपूर्ण और सही दिशा में नहीं रखी गई, तो वह संतुलन खो देती है और विपरीत प्रभाव उत्पन्न होता है। 'विपरीता भवार्णवे' का अर्थ है समुद्र की विपरीत दिशा, जो जीवन के विपरीत मार्ग का सूचक है। इस विपरीत मार्ग पर चलना किसी भी प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, या आध्यात्मिक पतन की ओर ले जाता है।
जो नीचे की ओर गिरते हैं, वे ऊपर की ओर तैरते हैं और जो ऊपर की ओर गिरते हैं, वे नीचे की ओर डूब जाते हैं। यह उल्टा-सीधा व्यवहार यह समझाता है कि जीवन में कभी-कभी जिनके पतन की संभावना अधिक होती है, वे अपनी परिस्थितियों के विपरीत प्रतिक्रिया देकर ऊंचाई पा सकते हैं। वहीं जो ऊंचाई पर होते हैं, यदि वे सतर्क न रहें तो उनका पतन निश्चित होता है। यह नियम सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन के कई पक्षों पर लागू होता है — जैसे कि पद, धन, सम्मान आदि।
यह विचार मनुष्य को चेतावनी देता है कि धन और समृद्धि केवल सही मार्ग पर होने पर ही स्थिर और उपयोगी होती हैं। यदि धन का उपयोग या संचय अनैतिक, असंगत या विपरीत मार्ग से किया गया तो वह स्वयं व्यक्ति का पतन कारण बन सकता है। यहां पर 'द्विजमयी नौका' के रूप में धन का उल्लेख इस तथ्य को रेखांकित करता है कि धन को समझदारी और नैतिकता के साथ संभालना आवश्यक है, अन्यथा वह विपत्तियों और असंतुलन की वजह बन सकता है।
इस दृष्टिकोण से, यह विचार सामाजिक और नैतिक विवेक की मांग करता है कि व्यक्ति न केवल धन की प्राप्ति पर ध्यान दे बल्कि उसकी दिशा, उपयोगिता और परिणामों को भी समझे। इस प्रक्रिया में जीवन के उतार-चढ़ाव की समझ और सतर्कता आवश्यक है ताकि विपरीत परिस्थितियों से बाहर निकला जा सके और समृद्धि की नाव को सही दिशा दी जा सके।