श्लोक १५-१२

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पठन्ति चतुरो वेदान्धर्मशास्त्राण्यनेकशः ।
आत्मानं नैव जानन्ति दर्वी पाकरसं यथा ॥ ॥१५-१२॥
चतुर पुरुष अनेक प्रकार के वेद और धर्मशास्त्र पढ़ते हैं, फिर भी वे स्वयं को ठीक से नहीं जानते, जैसे कि दरबी अपने ही पाकर के स्वाद को नहीं जानता।

कई बार ज्ञान के प्रदर्शन में व्यक्ति माहिर होता है—वेदों और धर्मशास्त्रों का विस्तार से अध्ययन कर लेने के बावजूद भी उसकी आत्म-ज्ञान की कमी रह जाती है। वेदों और धर्मशास्त्रों का अध्ययन मात्र सूचनाओं का संग्रह नहीं है, बल्कि आत्मा की गहन समझ और आत्मपरिचय का माध्यम होना चाहिए। जब यह सम्बन्ध टूट जाता है, तब ज्ञान केवल बाहरी बनावट रह जाता है।

यह स्थिति एक दरबी (अंगूर के रस की गुणवत्ता जांचने वाला व्यक्ति) के समान है, जो अपने ही पाकर का स्वाद नहीं पहचान पाता। इसका अर्थ है कि वह व्यक्ति जो बहुत सारे ग्रंथ पढ़ ले, अनेक सिद्धांत जान ले, लेकिन स्वयं के स्वभाव, सोच, और आंतरिक स्थिति को नहीं समझ पाता। इस प्रकार, वह अपने जीवन और कर्मों के वास्तविक आधार से कट जाता है।

असली समझ आत्म-जागरूकता और आत्म-साक्षात्कार से होती है, जो बाहरी ज्ञान से कहीं अधिक गहरी होती है। ज्ञान का उद्देश्य न केवल बाहरी तथ्यों को जानना है, बल्कि अपने अंतर्मन को समझकर अपने कर्तव्य और व्यवहार को सही दिशा देना है। जब तक आत्म-ज्ञान न हो, तब तक शास्त्रों का अध्ययन केवल शोभा के लिए होता है, जो निरर्थक और असफल होता है।

यह विचार मनुष्य की चेतना के अभाव और स्वयं के प्रति अज्ञानता की कठोर आलोचना करता है। यह बताता है कि कितनी भी विद्वत्ता हो, यदि आत्म-चेतना नहीं है, तो वह व्यर्थ है। शास्त्रों का अध्ययन केवल तभी सार्थक होगा जब वह आंतरिक परिवर्तन और आत्म-प्रकाश के लिए मार्ग प्रशस्त करे।

अतः आत्म-ज्ञान को प्रथमिकता देना आवश्यक है; बाहरी ज्ञान तभी पूर्ण माना जा सकता है जब वह आत्मा के साक्षात्कार के साथ जुड़ा हो। जब यह जुड़ाव होगा तभी व्यक्ति सतत प्रगति की ओर अग्रसर होगा और अपने जीवन में वास्तविक समृद्धि पा सकेगा।