अनर्चयित्वा यो भुङ्क्ते स वै चाण्डाल उच्यते ॥ ॥१५-११॥
भोजन केवल शारीरिक आवश्यकता की पूर्ति नहीं, बल्कि उसमें संस्कार, आचार, और शुद्धि का भी होना अनिवार्य है। जब कोई व्यक्ति दूर से आकर, थका-हारा होने के बावजूद, बिना उचित आचार-विचार, नियम और शुद्धि के भोजन करता है, तो उसे सामाजिक और नैतिक दृष्टि से निम्नतम माना जाता है। चांडाल शब्द यहाँ केवल जातिगत भेद को नहीं दर्शाता, बल्कि आचरण की गन्दगी और नैतिक पतन को सूचित करता है।
भोजन की प्रक्रिया में आचार का महत्व इसलिए है क्योंकि यह न केवल शरीर की सफाई का प्रतीक है, बल्कि मन और चरित्र की भी सफाई करता है। अनाचारी भोजन या बिना नियम के भोजन करना व्यक्ति के स्वाभिमान, शिष्टाचार और सामाजिक संस्कारों का उल्लंघन है। इससे व्यक्ति की गरिमा गिरती है और समाज में उसकी स्थिति निम्न हो जाती है।
श्रम, परिश्रम और थकान के बाद भोजन की इच्छा स्वाभाविक है, परन्तु उस भूख को पूरा करना भी विवेक और मर्यादा के दायरे में होना चाहिए। यदि शुद्धि और आचार-विचार को त्याग दिया जाए तो वह भूख संतोष नहीं, अपितु अभद्रता और असम्मान की ओर ले जाती है।
इस विचार से प्रश्न उठता है कि सामाजिक मर्यादा और व्यक्तिगत आचरण के नियम क्यों आवश्यक हैं? इसका उत्तर है कि व्यक्ति केवल अपने लिए नहीं, बल्कि समाज के लिए भी उत्तरदायी होता है। भोजन के आचार का उल्लंघन सामूहिक संस्कृति और सामाजिक सद्भाव को प्रभावित करता है। बिना आचार के भोजन करना व्यक्तित्व की आन्तरिक अशुद्धि का प्रतीक है जो बाहरी समाज में भी अपनी छाया छोड़ती है।
यह स्थिति आचार की महत्ता को सिद्ध करती है, जहां केवल काया की तृप्ति पर्याप्त नहीं, बल्कि मन और चरित्र की शुद्धि भी आवश्यक है। ऐसा भोजन जो अनाचारपूर्ण हो, वह केवल शरीर को हानि नहीं पहुँचाता, बल्कि व्यक्ति की सामाजिक प्रतिष्ठा और आत्म-सम्मान को भी कम करता है। इसीलिए, आचार और नियमों का पालन भोजन में अनिवार्य तत्व है।
शब्द 'चाण्डाल' का प्रयोग इस संदर्भ में प्रतीकात्मक है, जो सामाजिक और नैतिक पतन को दर्शाता है, न कि केवल जन्म या जाति के आधार पर। यह संकेत करता है कि आचार के अभाव में व्यक्ति निम्नतम स्थिति को प्राप्त हो जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति का आचरण ही उसकी असली पहचान है, न कि जन्मजात गुण।