श्लोक १५-१०

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्याः
स्वल्पश्च कालो बहुविघ्नता च ।
यत्सारभूतं तदुपासनीयां
हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात् ॥ ॥१५-१०॥
असीम शास्त्रों और बहुत सारी विद्याएँ, कम समय और अनेक विघ्न होते हैं। इसलिए जो सारभूत है, वही उपासनीय है, जैसे हंस दूध के बीच से निकाल लिया जाता है।

ज्ञान और विद्या का संसार अनंत और विस्तृत है, जिसमें कई शास्त्र और विद्या शाखाएँ शामिल हैं। इस विशालता के कारण व्यक्ति के सामने समय की कमी और अनेकों विघ्न बाधाएँ उत्पन्न होती हैं। इसलिए ज्ञानार्जन की प्रक्रिया में विवेकपूर्वक चयन करना अनिवार्य हो जाता है।

विविध और अप्रासंगिक जानकारियों का बोझ न केवल व्यक्ति के समय और ऊर्जा को व्यर्थ करता है, बल्कि उसके मानसिक स्फूर्ति और ध्यान को भी विचलित करता है। वस्तुतः, ज्ञान का मूल्य उसकी सारगर्भिता और उपयोगिता से तय होता है, न कि उसकी मात्रा से।

यहां 'हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्' की रूपकात्मक अभिव्यक्ति अत्यंत सूक्ष्म है। हंस, जो दूध से केवल शुद्ध और आवश्यक अंश निकालता है, उसी प्रकार ज्ञान को भी उसके सार से परिपूर्ण और शुद्ध अंश को ही ग्रहण करना चाहिए। अतः ज्ञान की भीड़ में से सारभूत तत्वों का चयन कर उनका उपास्य होना श्रेष्ठतम मार्ग है।

इस प्रकार, ज्ञान के क्षेत्र में सफल और प्रभावशाली होना है तो असीम सामग्री में से सार की खोज अवश्यम्भावी है। विघ्नों और सीमित समय की बाधा को पार करना तभी संभव है जब अनावश्यक विषयों को त्यागकर केवल उस ज्ञान को ग्रहण किया जाए जो कर्मठता, विवेक और व्यवहार में उपयोगी हो।

यह दृष्टिकोण आज के युग में भी अत्यंत प्रासंगिक है, जहां जानकारी का अनंत समुद्र उपलब्ध है परंतु उसका सही चयन और उपयोग सीमित समय में करना चुनौती है। ज्ञान के गूढ़ और सारभूत तत्वों की पहचान ही जीवन को सार्थक बनाती है।