यो यस्य हृदये नास्ति समीपस्थोऽपि दूरतः ॥ ॥१४-०९॥
संपर्क और दूरी केवल भौतिक स्थिति तक सीमित नहीं होती। मनुष्य की वास्तविक निकटता या दूरी उसकी मानसिक और हृदयिक स्थिति पर निर्भर करती है। कोई व्यक्ति भौतिक रूप से दूर हो सकता है, परन्तु यदि वह हृदय और मन में सन्निहित हो, तो वह वास्तव में निकट ही माना जाता है। इस प्रकार, दूरी और निकटता का माप केवल स्थानिक सीमा तक सीमित नहीं रहता।
इस विचार में भावनात्मक और मानसिक जुड़ाव का महत्व सर्वोपरि है। मन में स्थापित व्यक्ति की उपस्थिति उसके शारीरिक अभाव को अप्रासंगिक बना देती है। इसके विपरीत, यदि कोई व्यक्ति शारीरिक रूप से पास हो, पर उसका स्थान हृदय में न हो, तो वह असल में दूर ही रहता है। यह भावनात्मक पृथक्करण शारीरिक निकटता के विपरीत हो सकता है।
इस स्थिति का दार्शनिक और मनोवैज्ञानिक महत्व गहरा है। मानव संबंधों में सच्ची निकटता का आधार संवेदनाएँ और अंतरंगता हैं, न कि केवल स्थान। कभी-कभी बाहरी दूरी के बावजूद भी मनुष्यों के बीच गहरा संवाद और सहानुभूति होती है, और कभी-कभी निकटता के बावजूद वैचारिक और भावनात्मक दूरी बनी रहती है।
यह विचार हमें सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में संबंधों के अर्थ को पुनः परिभाषित करने के लिए प्रेरित करता है। केवल शारीरिक उपस्थिति से संबंधों की गहराई का आकलन करना अधूरा होगा। सच्ची निकटता का आधार आत्मीयता, सम्मान, विश्वास और मानसिक एकरूपता है। जो मन और हृदय में रहता है, वही वास्तविक साथी है।
इस प्रकार, दूरी का अनुभव केवल बाहरी भौतिक सीमाओं से प्रभावित नहीं होता, बल्कि आंतरिक भावनाओं और मानसिक बंधनों से भी नियंत्रित होता है। यह सत्य न केवल व्यक्तिगत जीवन में, बल्कि नेतृत्व, राजनैतिक, और सामाजिक संदर्भों में भी लागू होता है, जहाँ भावनात्मक जुड़ाव और विश्वास की भूमिका निर्णायक होती है।