श्लोक १४-०६

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
धर्माख्याने श्मशाने च रोगिणां या मतिर्भवेत् ।
सा सर्वदैव तिष्ठेच्चेत्को न मुच्येत बन्धनात् ॥ ॥१४-०६॥
धर्म का वर्णन सुनते समय, श्मशान में, और रोगियों की अवस्था में जो बुद्धि उत्पन्न होती है — यदि वही बुद्धि सदा बनी रहे, तो कौन बंधनों से मुक्त न हो जाए?

मानव बुद्धि तब सबसे अधिक निर्मल, गम्भीर और सत्यान्वेषी होती है जब जीवन के अंतिम सत्य उसके सामने निर्वसन खड़े होते हैं। धर्मोपदेश की सभा में, श्मशान के सन्नाटे में, या जब शरीर रोगों से जर्जर होता है — इन सभी स्थितियों में मनुष्य का मन सांसारिक मोह-माया से अलिप्त होकर आत्मा, कर्म और मुक्ति के प्रश्नों पर केंद्रित हो जाता है। यह वही क्षण होते हैं जब लोभ, अहंकार, द्वेष, वासना — सभी छायाएँ धूमिल हो जाती हैं, और भीतर कोई गहरी तटस्थता जागती है।

परंतु विडंबना यह है कि जैसे ही यह अवस्था बीतती है, वैराग्य क्षीण हो जाता है। मनुष्य फिर से उसी मोहजाल में फँस जाता है जिससे कुछ क्षण पहले वह मुक्त था। उसकी चेतना फिर से वस्तुओं में उलझ जाती है, अहंकार फिर से सिर उठाता है, और लोभ की जड़ें फिर से गहराई में पैठ जाती हैं। यही अस्थिरता ही सबसे बड़ा बंधन है। जो उस क्षणिक निर्मलता को स्थायित्व दे सके, वही सच्चा साधक है।

मानव जीवन का मूल संकट यही है कि वह गहन बोध के क्षणों को पकड़ नहीं पाता। जो बात मृत्यु की छाया में या पीड़ा के चरम में स्पष्ट दिखती है, वह ही समृद्धि और भोग के समय विस्मृत हो जाती है। यदि वही स्पष्टता — जो मृत्यु को देखकर आती है, जो रोगी अवस्था में जागती है, जो धर्म के मर्म को सुनते समय अनुभव होती है — यदि वह स्थिर रहे, तो मनुष्य न केवल सांसारिक बंधनों से बल्कि आत्मिक भ्रमों से भी मुक्त हो सकता है।

इसका अर्थ यह नहीं कि व्यक्ति को श्मशान में जाकर ही बोध प्राप्त होगा, या रोगी होकर ही वैराग्य आएगा; बल्कि यह कि जीवन में ऐसी अनुभूतियों का स्थायी संस्कार बन जाए। यह अभ्यास ही साधना है — उस अंतर्दृष्टि को, जो कभी-कभार जगती है, प्रतिदिन की चेतना में स्थायी बनाना। यही आत्मोद्धार का मार्ग है।

विचार करें — जब कोई अपने प्रियजन की चिता को अग्नि देता है, तब उसके भीतर कैसी भावनाएँ उठती हैं? वह क्षण हमें क्षणभंगुरता, मृत्यु की अनिवार्यता, और जीवन की तुच्छता का भान कराता है। यदि वही दृष्टिकोण व्यापार करते समय, सत्ता भोगते समय, अथवा पारिवारिक निर्णयों में भी रहे — तो न भ्रष्टाचार होगा, न हिंसा, न छल। जीवन का प्रत्येक क्षण एक तप बन जाएगा।

ऐसी अवस्था केवल विचार या उपदेश से नहीं आती — वह अभ्यास, आत्मनिरीक्षण और निरंतर वैराग्य से आती है। यह मार्ग कठिन है क्योंकि उसमें कोई बाहरी आकर्षण नहीं, केवल अंतःकरण का आह्वान है। पर जो इस मार्ग पर चल सके, उसके लिए न कोई शत्रु रह जाता है, न बंधन।