प्राज्ञे शास्त्रं स्वयं याति विस्तारं वस्तुशक्तितः ॥ ॥१४-०५॥
वस्तुओं की स्वाभाविक गति और गुणों की प्रवृत्ति समझने की दृष्टि से यह एक अत्यंत सूक्ष्म और गहन सत्य प्रतिपादित करता है। कुछ गुण ऐसे होते हैं जो अपने लिए अनुकूल माध्यम प्राप्त होते ही फैलने लगते हैं — न उन्हें प्रेरणा की आवश्यकता होती है, न ही कोई बाह्य सहायता। जल में तेल स्वतः फैलता है, यह उसकी प्रकृति है। इसी प्रकार, यदि किसी रहस्य को मूर्ख या दुष्ट के कानों तक पहुँचाया जाए तो वह फैलना अवश्यंभावी है — न रोकने से रुकता है, न छिपाने से छिपता है।
दान का भी यही स्वभाव है — यदि वह पात्र को दिया जाए, अर्थात उस व्यक्ति को जो उसकी योग्यताओं और मर्यादाओं से युक्त हो, तो वह दान सीमित नहीं रहता, वह सामाजिक चेतना, कृतज्ञता और पुनरुत्पत्ति के रूप में आगे प्रसारित होता है। यह उस बीज की तरह है जो उपजाऊ भूमि में गिरते ही वृक्ष बन जाता है।
लेकिन सबसे उल्लेखनीय और सूक्ष्म सत्य बुद्धिमान व्यक्ति के संदर्भ में व्यक्त किया गया है। यदि उसे थोड़ा भी शास्त्र — ज्ञान, निर्देश या संकेत — दे दिया जाए, तो वह उसे अपने विवेक और चिन्तन की शक्ति से स्वयं विस्तारित कर देता है। उसे उपदेश की ज़रूरत नहीं, न ही किसी दीर्घ स्पष्टीकरण की। वह एक सूत्र को पकड़कर सैकड़ों निष्कर्ष स्वयं निकाल लेता है।
यह उस दीये के समान है जिसे यदि थोड़ा सा तेल और बाती दे दी जाए, तो वह अंधकार में उजाला फैला देता है। यह गुण सामान्य मनुष्यों में नहीं होता; यह उस भीतर की चैतन्याग्नि से उपजा हुआ गुण है जो बुद्धि को केवल धार नहीं देती, उसे ज्वालामुखी बना देती है।
यह विवेचना उन लोगों को भी लक्ष्य बनाती है जो व्यर्थ में ही रहस्य प्रकट कर देते हैं, या दान का अपात्र में अपव्यय करते हैं, या शास्त्र के मर्म को न समझकर व्याख्यानों की बाढ़ में उलझ जाते हैं। सही माध्यम का चयन, पात्रता का परीक्षण, और स्वाभाविक गुणों का समझना — यह सब किसी भी विवेकी व्यवस्था का आधार है।
कोई ज्ञान, कोई तत्व, कोई मूल्य — तब तक प्रभावी नहीं हो सकता जब तक वह उपयुक्त स्थान, व्यक्ति या स्थिति में न पहुंचे। जैसे संजीवनी बूटी मृत शरीर को नहीं जगा सकती, वैसे ही ज्ञान भी मूढ़ मन में निष्प्रभावी रहता है। परन्तु यदि वह प्राज्ञ के संपर्क में आ जाए, तो वह स्वयं फलता-फूलता है। यही आत्मगुण की शक्ति है — जो बाहर से नहीं आती, भीतर से फूटती है।