वर्षाधाराधरो मेघस्तृणैरपि निवार्यते ॥ ॥१४-०४॥
एकाकी वीरता की सीमाएँ होती हैं, जबकि संगठित शक्ति सामूहिक निर्णय, सहयोग और योजनाबद्ध कार्य से परिपूर्ण होती है। यह सिद्धांत केवल सैन्य रणनीति तक सीमित नहीं है, बल्कि सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा बौद्धिक जीवन के सभी क्षेत्रों में लागू होता है। जब अनेक सत्त्वशील व्यक्ति एक लक्ष्य के लिए संगठित होते हैं, तो वे किसी भी शक्तिशाली विरोधी को पराजित कर सकते हैं — चाहे वह कितना भी सुदृढ़ क्यों न हो। पराजय की शक्ति संगठन की शक्ति के सामने क्षीण पड़ जाती है।
बादल का उदाहरण यहाँ विशेष अर्थ रखता है। भारी और गर्जनशील वर्षा लाने वाला मेघ भी, यदि घास के तिनकों के समान अल्प और दुर्बल वस्तुओं द्वारा संयोजन में व्यवस्थित कर दिया जाए, तो रोका जा सकता है। यह प्रतीक मात्र नहीं है — यह मानव जीवन की रणनीति को उजागर करता है। व्यक्तिगत सामर्थ्य चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हो, असंगठित और अलग-थलग पड़ जाने पर वह व्यर्थ हो जाती है।
युद्धभूमि में यह सिद्धांत स्पष्ट देखा गया है: एक व्यक्ति चाहे कितना भी निपुण योद्धा हो, यदि वह अकेला लड़ता है तो उसकी हार निश्चित है। वही व्यक्ति यदि योग्य योद्धाओं के संगठन में हो, तो दुश्मन चाहे जितना भी प्रबल हो, उसकी विजय संभावित हो जाती है। इसी प्रकार, नीति-निर्माण, व्यापार, आंदोलन, समाज-सुधार, और ज्ञान-संवर्धन जैसे क्षेत्रों में भी व्यक्तियों का सामूहिक प्रयास ही दीर्घकालिक परिवर्तन ला सकता है।
सामूहिकता का मूल बल परस्पर विश्वास, पारदर्शिता, समर्पण और उद्देश्य की एकता में है। जब यह लुप्त हो जाता है, तब संगठन केवल संख्या बनकर रह जाता है, शक्ति नहीं। किंतु जब यह सब गुण विद्यमान होते हैं, तब यह तिनकों के समान कमजोर घटकों को भी एक अपराजेय दीवार में बदल देता है। यही कारण है कि सत्ता को भय होता है एकजुट नागरिकों से, व्यवसायों को चुनौती मिलती है संगठित उपभोक्ताओं से, और विचारधाराओं को विरोध तभी हिला सकता है जब वह एक सामूहिक चेतना में रूपांतरित हो।
जो समाज संगठित होना भूल जाता है, वह धीरे-धीरे अपनी प्रतिरोधक क्षमता खो देता है। वह चुपचाप सहता है, टूटता है, और अंततः समाप्त हो जाता है। इसके विपरीत, जिस समाज में तिनकों जैसे सामान्यजन एक ध्येय के लिए एकत्र होते हैं, वह स्वयं अत्याचारी तूफानों को रोक सकता है। यह दृष्टिकोण सामर्थ्य की पुनर्परिभाषा करता है: शक्ति का केंद्र अकेले व्यक्ति में नहीं, बल्कि समवेत चेतना और एकता में होता है।