श्लोक १४-०३

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पुनर्वित्तं पुनर्मित्रं पुनर्भार्या पुनर्मही ।
एतत्सर्वं पुनर्लभ्यं न शरीरं पुनः पुनः ॥ ॥१४-०३॥
धन, मित्र, पत्नी और भूमि — ये सब पुनः प्राप्त किए जा सकते हैं, परंतु शरीर बार-बार नहीं मिलता।

मनुष्य जीवन में कई प्रकार की वस्तुएँ अस्थायी होती हैं — धन, संबंध, संपत्ति, वैवाहिक साथी — ये सब बदलते रहते हैं, खोकर फिर से प्राप्त किए जा सकते हैं। मनुष्य जब इन वस्तुओं के क्षय से विचलित होता है, तो वह जीवन के मूल तत्व को भूल जाता है: स्वयं का शरीर। यह शरीर ही वह माध्यम है जिसके द्वारा कोई भी वस्तु अर्जित की जा सकती है। शरीर नहीं तो कोई साधन नहीं, कोई उद्देश्य नहीं, कोई अनुभव नहीं।

बहुधा लोग अपार धन के पीछे भागते हैं, मित्रता के टूटने पर आत्मघात तक की सोचने लगते हैं, या जीवनसाथी के वियोग में आत्मविस्मृति में डूब जाते हैं — पर वे इस बुनियादी सत्य को अनदेखा करते हैं कि जब तक शरीर सुरक्षित है, तब तक जीवन की पुनर्रचना संभव है। वस्त्र फट सकता है, भवन गिर सकता है, व्यापार डूब सकता है — किंतु जब शरीर है, तब पुनः निर्माण सम्भव है।

मानव शरीर केवल एक भौतिक आवरण नहीं, बल्कि चेतना का साधन है। यह एक बार खो जाए तो जीवन की सारी योजनाएँ, सारे उद्देश्य, सारे संसाधन अर्थहीन हो जाते हैं। इसलिए सबसे पहला धर्म शरीर की रक्षा है — मानसिक, शारीरिक और आत्मिक स्तर पर। यह मात्र अस्तित्व का प्रश्न नहीं, बल्कि कर्म, लक्ष्य और उत्तरदायित्व का प्रश्न है।

क्या कोई मनुष्य जो दुर्बल, रुग्ण, या निराश है, समाज के लिए कुछ ठोस निर्माण कर सकता है? क्या कोई ऐसा व्यक्ति जो अपने शरीर की उपेक्षा करता है, किसी उच्चतर उद्देश्य की सिद्धि कर सकता है? शरीर की अवहेलना आत्मघात के समकक्ष है, क्योंकि यह नश्वर होते हुए भी अद्वितीय अवसर है — न केवल भोग के लिए, बल्कि साधना, सेवा और सृजन के लिए भी।

एक बार शरीर नष्ट हो गया तो जो कुछ भी संचित है — संबंध, अनुभव, सिद्धियाँ — सब एक ही क्षण में शून्य हो जाते हैं। और फिर वह शरीर कभी पूर्ववत नहीं लौटता। इसीलिए, मानव को यह सिखाया जाना चाहिए कि संसार की सभी क्षति सहन की जा सकती है, पुनः अर्जित की जा सकती है, लेकिन शरीर की क्षति अपरिवर्तनीय है।

आत्मविकास, समाजसेवा, ज्ञानसाधना, या किसी भी लक्ष्य की सिद्धि — सबका पहला शर्त है एक स्वस्थ, सजीव और सचेत शरीर। यही कारण है कि इस बिंदु पर जीवनदृष्टि पूर्णत: व्यावहारिक और अत्यंत प्रामाणिक होनी चाहिए। शरीर को साधन नहीं, ध्येय का प्रवेशद्वार मानकर उसकी रक्षा की जानी चाहिए।