दारिद्र्यदुःखरोगाणि बन्धनव्यसनानि च ॥ ॥१४-०२॥
जब मानव स्वयं के विरुद्ध अपराध करता है—अपने विवेक, कर्तव्य और सत्य के प्रति छल करता है—तो यह आत्म-अपराध बन जाता है। ऐसे अपराधों की जड़ें भीतर होती हैं और समय के साथ वे एक वृक्ष की भाँति बढ़ती हैं, जिसकी शाखाएँ अनेक प्रकार की पीड़ाओं में बदल जाती हैं। इन पीड़ाओं का स्वरूप बहुआयामी होता है — दरिद्रता, जो बाहरी संसाधनों की कमी नहीं, बल्कि आंतरिक सामर्थ्य की दुर्बलता का प्रतीक है; दुःख, जो आत्मसंघर्ष और पश्चाताप की पीड़ा से उपजता है; रोग, जो केवल शारीरिक नहीं, मानसिक और आत्मिक भी होते हैं; बंधन, जो स्वतंत्रता के स्थान पर जड़ता, संकोच और विवशता को जन्म देता है; और अंततः व्यसन, जो आत्मनाश का सीधा मार्ग है।
यह वृक्ष तब फलता है जब व्यक्ति अपने नैतिक मूल्यों की उपेक्षा करता है, जब वह अपने निर्णयों में लोभ, मोह, अहंकार, या भय को स्थान देता है। आत्मा के विरुद्ध किया गया अपराध हमेशा बाहर नहीं दिखता, परंतु उसके परिणाम अटल और स्पष्ट होते हैं। यह वृक्ष भीतर ही भीतर अंकुरित होता है, पर जब फल देता है तो पूरा जीवन उसके बोझ तले दब जाता है।
वास्तव में, दरिद्रता का संबंध केवल धन की अनुपस्थिति से नहीं है, बल्कि विचारों की दरिद्रता, आत्मबल की दरिद्रता, और साहस की दरिद्रता अधिक घातक होती है। यही दरिद्रता मनुष्य को जीवन की ऊँचाइयों से नीचे गिराती है। दुःख भी तभी स्थायी होता है जब उसका कारण बाह्य नहीं, बल्कि आंतरिक होता है — स्वयं के चुनाव, स्वयं की उपेक्षा और स्वयं की असत्यताओं से उपजा। रोगों का कारण भी जब आत्म-नीति से विचलन होता है, तो चिकित्सा केवल शरीर की नहीं, चेतना की होनी चाहिए।
बंधनों की बात करें, तो वे केवल शारीरिक या सामाजिक नहीं होते। मनोवैज्ञानिक बंधन — अपराधबोध, हीनता, कुंठा — यह सब आत्म-अपराध के ही प्रसाद हैं। व्यक्ति यदि अपनी आत्मा के साथ ईमानदार नहीं रहता, तो वह अनजाने ही जंजीरों में जकड़ा जाता है। व्यसन इस वृक्ष का सबसे जहरीला फल है। यह उस क्षणिक सुख की खोज है जो स्वयं से भागने की प्रवृत्ति को दर्शाता है। आत्म-तिरस्कार का अंतिम परिणाम व्यसन है, जो आत्मा की मृत्यु को जन्म देता है।
यह वृक्ष किसी अन्य के बोने से नहीं उगता; इसका बीज स्वयं व्यक्ति बोता है — अपने चुनावों, विचारों और दृष्टिकोणों से। इसका तात्पर्य यह है कि जीवन में जो भी पीड़ा हमें प्राप्त होती है, उसका बीज कहीं न कहीं हमारे ही भीतर बोया गया होता है। यदि हम उस वृक्ष को काटना चाहते हैं, तो केवल बाहरी उपाय नहीं, आत्म-निरीक्षण और आत्म-शुद्धि की आवश्यकता है।
मानव का सच्चा कल्याण तभी संभव है जब वह आत्मा के विरुद्ध अपराध करना बंद करे। जब वह अपने ही अंतःकरण को धोखा देना छोड़ दे, तब वह इन दुःखों की श्रृंखला से मुक्त हो सकता है। इस वृक्ष की जड़ें भीतर हैं, तो समाधान भी वहीं है।