श्लोक १४-०१

Chanakyaneeti Darpan by Acharya Chankya
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥ ॥१४-०१॥
पृथ्वी पर तीन रत्न हैं — जल, अन्न और सुभाषित। मूर्ख लोग पत्थर के टुकड़ों को रत्न की संज्ञा देते हैं।

मानव सभ्यता की मूलभूत आवश्यकताएँ और उसका उत्कर्ष दोनों ही जिन तत्वों पर निर्भर करते हैं, वे तीन हैं — जल, अन्न और सुभाषित। जल जीवन का आधार है, अन्न जीवन का पोषण, और सुभाषित — अर्थात् विवेकपूर्ण, सत्यमय वचन — जीवन की दिशा और गरिमा का निर्धारण करते हैं। इन तीनों की अनुपस्थिति में जीवन या तो संभव नहीं या मूल्यहीन बन जाता है।

किंतु मनुष्य का भ्रम, उसकी मूल्य-मुक्ति की वृत्ति और प्रतीकात्मकता के प्रति उसकी ललक उसे वास्तविक रत्नों से विमुख कर देती है। वह पत्थर के टुकड़ों — हीरे-जवाहरात — को 'रत्न' मानकर उनके पीछे भागता है, जबकि वे न तो जीवन देते हैं, न पोषण, और न ही दिशा। यहाँ ‘मूढ’ शब्द केवल बौद्धिक जड़ता को नहीं, बल्कि उस सामाजिक-सांस्कृतिक गिरावट को सूचित करता है जिसमें प्रतीकों ने तत्त्वों का स्थान ले लिया है।

जिस समाज में जल उपेक्षित है, अन्न अनादृत है और सुभाषित — अर्थात् ज्ञान, शास्त्र, नीति — केवल मनोरंजन या वाद-विवाद की वस्तु बन चुके हैं, वह समाज अपने पतन की दिशा में तीव्रगति से अग्रसर होता है। क्या यह विडंबना नहीं कि मनुष्य धरती से निकाले गए मृत पत्थरों को 'रत्न' मानकर अपनी गर्दन में लटकाता है, परंतु जीवनदायिनी नीतियों और ज्ञान-वचनों को तिरस्कार की दृष्टि से देखता है?

सुभाषित — जिनमें नीति, दर्शन, जीवन-जागरण और आत्म-संवाद निहित हो — वे जीवन को न केवल दिशा देते हैं, बल्कि उसे शुद्ध करते हैं, उन्नत करते हैं। ऐसे वचनों में संचित होता है अनुभव, यथार्थ और चिरस्थायी मूल्य। लेकिन आधुनिक समय में ‘मूल्य’ की जगह ‘मूल्यवान वस्तुओं’ ने ले ली है। रत्नों का मूल्य उनके चमकने में नहीं, उनके जीवन को मूल्यवान बनाने की क्षमता में होना चाहिए — यह धारणा लुप्तप्राय हो चली है।

यहाँ यह प्रश्न खड़ा होता है: मनुष्य रत्नों का संग्रह क्यों करता है? क्या केवल सौंदर्य के लिए? अथवा शक्ति के प्रतीक के रूप में? यदि हाँ, तो यह केवल अहंकार का विस्तार है, जीवन का नहीं। पर जल, अन्न और सुभाषित — ये रत्न जीवन का विस्तार करते हैं, अहंकार का नहीं।

जब मूल्यांकन की कसौटी उलट जाती है, तब पत्थर रत्न बनते हैं और ज्ञान तिरस्कृत होता है। जल की बूंद के लिए तरसते क्षेत्र, भूख से पीड़ित जन और ज्ञानहीन समाज — ये सब उस भ्रांति की परिणति हैं जिसमें पत्थरों को रत्न मान लिया गया है।

सच्चा 'रत्न' वह है जो जीवन को अर्थ, ऊर्जा और उदात्तता प्रदान करे — जल, अन्न और सुभाषित यही करते हैं।